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________________ स्वामी विवेकानन्द अपनी पुस्तक में लिखते हैं कि 'भगवदगीता में हमें इस बात का बारम्बार उपदेश मिलता है कि हमें निरन्तर कर्म करते रहना चाहिये । कर्म स्वभावतः सत्-असत् से मिश्रित होता है । हम ऐसा कोई भी कर्म नहीं कर सकते हैं, जिससे कहीं कुछ भला न हो और ऐसा भी कोई कर्म नहीं है जिससे कहीं न कहीं कुछ हानि न हो । प्रत्येक कर्म अनिवार्य रूप से गुण-दोष से मिश्रित रहता है परन्तु फिर भी शास्त्र हमें सतत्कर्म करते रहने का ही आदेश देते हैं। सत् और असत् दोनों का अपना अलग-अलग फल होगा। 'सत् कर्मों का फल' सत होगा और असत् कर्मों का फल असत्। परन्तु सत् और असत् दोनों ही आत्मा के लिये बन्धन स्वरूप हैं। इस सम्बन्ध में गीता का कथन है कि यदि हम अपने कर्मों में आसक्त न हो तो हमारी आत्मा पर किसी प्रकार का बन्धन नहीं पड़ सकता है । "" गीता में कहा गया है कि दुःख का एकमात्र कारण यह है कि हम आसक्त हैं हम बद्ध हो जा रहे हैं। इसलिये गीता में उपदेश है कि निरन्तर कर्म करते रहो, पर आसक्त मत होओ। बन्धन में मत पड़ो। प्रत्येक वस्तु से अपने आपको स्वतंत्र बना लेने की शक्ति स्वयं में संचित रखो। वह वस्तु तुम्हें बहुत ज्यादा प्यारी ही क्यों न लगे तुम्हारा प्राण उसके लिये चाहे जितना ही लालायित क्यों न हो फिर भी इच्छानुसार उसका त्याग करने की अपनी शक्ति मत खो बैठो। श्रीकृष्ण अर्जुन के मोह का निराकरण करते हुये कहते हैं कि " नैतत्त्वयुपपद्यते” यह तुम्हारे योग्य नहीं है। तुम अविनाशी आत्मा हो, सब दोषों से परे हो । अपनी सत्य प्रकृति को भूलकर और अपने को पापी समझकर तुमने अपने को वैसा बना लिया है जैसा कि कोई शारीरिक पापों तथा मानसिक शोक से पीड़ित हो - यह तुम्हारे योग्य नहीं है। भगवान इस प्रकार कहते हैं- "क्लैव्यं मा स्म गमः पार्थ" हे पृथा पुत्र! स्वामी विवेका० भगवान श्रीकृष्ण और भगवद्गीता। पृ० - ६३ 2 स्वामी विवेकानन्द भगवान श्रीकृष्ण की भगवद्गीता । 169
SR No.010176
Book TitleBramhasutra me Uddhrut Acharya aur Unke Mantavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandanadevi
PublisherIlahabad University
Publication Year2003
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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