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________________ रूप माना है 'अथ'-अर्वाक त्र अथर्वाक्, अथर्वा । गोपथ ने इसका अभिप्राय दिया है'समीपस्थ आत्मा को अपने अन्दर देखना या जिस वेद में आत्मा को अपने अन्दर देखने की शिक्षा है।" अथर्ववेद को अंगिरस वेद, ब्रह्मवेद, क्षत्रवेद, भैषज्यवेद, छन्दोवेद, महीवेद, आदि विविध नामों से जाना जाता है। महर्षि पतञ्जलि ने महाभाष्य में 'नवधाऽऽथर्वणोवेद वेदः (महा० भा० १) कहकर ६ शाखाओं का उल्लेख किया है। किन्तु इनमें से केवल दो शाखाओं अर्थात् शौनक और पैप्पलाद की ही संहिताएं उपलब्ध हैं। अथर्ववेद कई दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है१. यह वैदिक दर्शन का सबसे पुष्ट एवं प्रामाणिक स्रोत है। आरण्यक, उपनिषद आदि में प्राप्य दार्शनिक चिन्तन अथर्ववेद का ही विकसित रूप है। २. सभ्यता और संस्कृति की दृष्टि से अथर्ववेद चारों वेदों में सबसे अधिक उपयोगी है। ३. अथर्ववेद में तत्कालीन सामाजिक और राजनीतिक स्थिति का सबसे सुन्दर वर्णन है। ४. यह सार्वजनिक या जनता का वेद है। यह ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र एवं स्त्रियों __ आदि के द्वारा समान रूप से सेव्य है। ५. "साहित्य समाज का दर्पण है" इस उक्ति का यह सर्वोत्तम निदर्शन है। अथर्ववेद के ऋषि को "ब्रह्मा" कहा गया है। वेद में दार्शनिक प्रवृत्तियाँ ऋग्वेद में जगत् तथा जीवन के रहस्यों को जानने का प्रयास किया गया है। जगत् के निजी स्वरूप को जानने की आकांक्षा वैदिक ऋषियों के स्वभाव का अंग प्रतीत होता है। 1 अथअर्वाग् एनं - अन्विच्छेति, तद्यबृबीद् अथर्वासडेतमेता नमे तास्वप्वान्विच्छेति तदथर्वाऽभवत्। (गोपथ १-४) 129
SR No.010176
Book TitleBramhasutra me Uddhrut Acharya aur Unke Mantavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandanadevi
PublisherIlahabad University
Publication Year2003
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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