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________________ भूधरजनशतक चोरीनिषेधकथन হু হু चिन्तातो न चोर, रहत चौंकायल सारै । पौड़ें धनी बिलोक, लोक नि मिल मारै । प्रजा पालकर कोप; तोप पर रोप उठावै । मरै महादुख देख, अन्त गौचौ गति पावै । बहुविषतमूलचोरीविसन,अघटवासायनबर। परवितमदत्तअङ्गारगिन,नौतनिपुणपरसैनकररा५६॥ शब्दार्थ टीका (चिन्ता ) शोच (चोंकायल) चुकवा झिझकना (पी.) दुखदै ( प्रजा पाल ) राजा ( कोप) कोध (रोप ) खड़ाकर (भास ) दुख ( पर बित) परायाधन (अदत्त ] विन दियाहुबा ( अंगार ) आगका पिएड (भीति निपुण ) नीति चातुर नोति माता ( परसे ) कुबे (क र] हाथ सरलार्थ टीका चोर के मन से कभी चिन्ता नहीं जाती सब जगह चोकमा राता है और धन वाले देव कर दुर दे ये हैं और निर्दई पुरुष सिख कर
SR No.010174
Book TitleBhudhar Jain Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhudhardas Kavi
PublisherBhudhardas Kavi
Publication Year
Total Pages129
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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