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________________ भूधरजनशतक मारे, प्रजा पालक कोधित होकर तोप पर खड़ा कर उडावे को र महा दुख देख कर मर ता है और अन्त मैं नीची गति पाता है घी री बिसनबहु आपतों को जड़ है जिस के दोष प्रगट दिखाई देते हैं प र धन चुराये हुवे धनको अङ्गार समान नीति निपुण पुरुष हाथ से न हीं छूते परस्त्रीनिषेधकथन AUR 8- 10 छप्प छन्द कुगति बहन गुण दहन, दहन दावानलमी है। मुयश चन्द्र घन घटा, देह कृशकरन छई है। धनसर सोखन धूप, धरम, दिन सांझ समानौ । विपत भुनङ्ग निकास, बाबई बेद बखानी । एहिबिधअनेकौगुणमरी, प्रानहरन फासोप्रबल । मतकरहुमित्रयहजानकर, परबनतासोप्रीतमल ५७॥ प्राब्दार्थ टीका ( कुर्गात ] खोटी गति ( बहन ) जोजो (गहन ) गहना (दहन ) अन्नाने वाली ( दब) वनको आग [ अनल ) आग (दवानल ) जो आर्गदुझाई नहीं बुझतो [ कश) दुबलो ( सर )तालाब (सोखन )
SR No.010174
Book TitleBhudhar Jain Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhudhardas Kavi
PublisherBhudhardas Kavi
Publication Year
Total Pages129
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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