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________________ चतुर्थं खण्ड : उन्तालीसवाँ अध्याय ६२६ कुष्ठनाशक रस-कठगूलर, करंज के पत्र, हरड, शिरीष की छाल और बहेडा, सम प्रमाण में लेकर चूर्ण बना ले। इसका चूर्ण ३ माशे, मुनक्का १ तोला, शुद्ध टंकण १ माशा और गोमूत्र २३ तोला । आलोडित कर ( मथकर) फेन उठने पर पीये । एक सप्ताह के उपयोग से सप्त धातु तक प्रविष्ट महाकुष्ठो मे भी पर्याप्त लाभ होता है।' १६ शुद्ध गंधक-दूध मे या म8 में शुद्ध किये गधक का ४ रत्ती से एक माशा की मात्रा में घी और चीनी के साथ प्रयोग उत्तम रहता है। इसके दो योग उत्तम है। १ सोगंधिक चूर्ण-शुद्ध गधक १ भाग, काली मरिच १ भाग, त्रिफला ६ भाग और अमलताश की गुद्दो ६ भाग मिश्रित करके बनाया चूर्ण ३ माशे । अनुपान जल से । २ गंधक रसायन-निर्माण-विधि-गाय के दूध से तीन वार शुद्ध किया गंधक ६४ तोले ले, उमको पत्थर के खरल मे डालकर, दालचीनी, तेजपात, छोटी इलायची और नागकेसर इनमें प्रत्येक के कपड़छन चूर्ण को रात मे द्विगुण जल में भिगो सवेरे हाथ से मसलकर कपडे से छाने हुए जल से, ताजी गिलोय के स्वरस से, हरे और वहेडे के क्वाथ से, आँवला, भांगरा और अदरक इनमें प्रत्येक के स्वरस से आठ आठ दिनो तक मर्दन करे । अर्थात् प्रत्येक के जल, क्वाथ या स्वरस मे आठ-आठ दिनो तक भावना दे। कुल ८० भावना दे । प्रत्येक भावना मे ३-६ घटा तक मर्दन करके छाया में सुखाने के बाद दूसरी भावना दे। अन्त मे सुखाकर समान भाग मिश्री मिलाकर सुखाकर शोशी मे भर ले। मात्रा और अनुपान--४-८ रत्ती की मात्रा में सुबह-शाम घृत के साथ, दूध से, मजिष्ठादि कपाय से या सारिवादि हिम के साथ सेवन करावे । सभी प्रकार के कुष्ठ रोग मे लाभप्रद । १७ हरताल-शुद्ध हरताल, रसमाणिक्य, तालकेश्वर, महातालकेश्वर आदि का उपयोग भी जिसमे हरताल प्रमुख भाग मे पाया जाता है, उत्तम रहता है। १ चिरविल्वपत्रपथ्याशिरोपच विभीतकम् । काष्ठोदुम्बरिकामूल मूत्ररालोड्य फेनितम् ।। कर्पमात्र पिवेद्रोगी गोस्तन्या सह टंकणम् । सप्तसप्तकपर्यन्त सर्वकुष्ठविनाशनम् । ( र. सा. सं )
SR No.010173
Book TitleBhisshaka Karma Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnath Dwivedi
PublisherRamnath Dwivedi
Publication Year
Total Pages779
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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