SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 487
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्थं खण्ड : बाइसवॉ अध्याय ४३७ सर्वत्र कहता फिरे 'फिमको क्या हूँ?" ऐसे उन्मादी को यक्ष ग्रह से पीडित समझना चाहिये। ताम्राक्षः प्रियतनुरक्तवस्त्रधारी गम्भीरो द्रुतगतिरल्पवाक् सहिष्णुः। तेजस्वी वदति च किं ददामि कस्मै यो यक्षग्रहपीडितो मनुष्यः ।। ५ पितृजुष्ट-पितृ ग्रह से पोडित उन्मत्त व्यक्ति शान्त रहता है एवं दाहिने कर्ष पर यज्ञोपवीत वस्त्र आदि रखकर, कुशा के बने आसन पर बैठकर, पितरो को पिण्डदान और जलदान करता रहता है। मास, तिल, गुड और क्षीर जमे द्रव्यो में अधिक रुचि रखता है एव पितरो का भक्त भी होता है। प्रेतानां दिशति स संस्तरेषु पिण्डा शान्तात्मा जलमपि चापसव्यवस्नः। मांसेप्सुस्तिलगुडपायसाभिकामस्तभक्तो भवति पितृमहाभिजुष्टः ।। ६ सर्पग्रह जुष्ट-जो मनुष्य कभी कभी सपि के समान भूमि पर पेट के वल लेटकर सरकता है तथा जिह्वा से मोठो को चाटता रहता है, अत्यन्त क्रोधी होता है, जिसे गुड, गहद, दूध और खीर खाने की बहुत इच्छा रहती हो उसको सर्पग्रह से पीडित समझना चाहिये । यस्तूळ प्रसरति सर्पवत् कदाचित् सृकण्यौ विलिहति जिह्वया तथैव । क्रोधालुगुंडमधुदुग्धपायसेप्सु तव्यो भवति भुजङ्गमेन जुष्टः।। ७ राक्षस-ग्रह जुष्ट-राक्षस ग्रह जुष्ट उन्माद मे रोगी. मांस-रक्त तथा अनेक प्रकार के मद्यो को चाहता है। वह निर्लज्ज, अत्यन्त कठोर स्वभाव का और शूर होता है। ऐसे रोगी को क्रोध भी बहुत आता है एवं उसमे शक्ति भी बहुत अधिक होती है । वह रात्रि में घूमता है और पवित्रता से द्वेष करता है। मांसारमृग्विविधसुराविकारलिप्सुर्निर्लज्जो भृशमतिनिष्ठुरोऽतिशूरः ।, क्रोधालुर्विपुलवलो निशाविहारी शौचद्विड् भवति च राक्षसैगृहीतः।। ८ पिशाच ग्रहजुष्ट उन्माद-जो मनुष्य भुजाये ऊपर उठाये हुए रहता हो, नग्न रहता हो, जिसका मास क्षीण हो गया हो, जिसका शरीर कृश हो, जिसके शरीर से दुर्गन्ध आती हो, जो बहुत गन्दा रहता हो तथा अति लोभी हो, जो अधिक भोजन करे और निर्जन बनो मे घूमता रहे, जो विरुद्ध चेष्टा करता हो एव रोता हुमा इतस्तत. घूमता रहता हो उसे पिशाच ग्रह से जुष्ट समझना चाहिये। उद्धस्तः कृशपुरुपोऽचिरप्रलापी दुर्गन्धो भृशमशुचिस्तथातिलोलः। बह्वाशी विजनवनान्तरोपसेवी व्याचेष्टन् भ्रमति रुदन् पिशाचजुष्टः।।
SR No.010173
Book TitleBhisshaka Karma Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnath Dwivedi
PublisherRamnath Dwivedi
Publication Year
Total Pages779
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy