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________________ चतुर्थ खण्ड: दसवॉ अध्याय ३१३ मानी जाती है। प्रयोग विधि-औपधि प्रयोग के पूर्व रोगी को दो दिनो तक मूग की दाल, खिचडी या अन्य लघु अन्न देना चाहिये । फिर प्रात काल मे दस ग्रेन की मात्रा की तीन पुडिया अथवा कपस्युल मे भर कर दस ग्रेन प्रति कैपस्युल बनाकर एक दो या तीन मात्रा एक-एक घटे के अतर से देना चाहिये। युवक को पूर्ण मात्रा ३० ग्रेन की होती है । इससे अधिक कदापि न दे । आवश्यकतानुसार रोगी और रोग के बल-काल के अनुसार दस, बीस या तीस ग्रेन तक दिया जा सकता है। यथावश्यक औपधि देने के अनन्तर रोगी के मात्र के प्रक्षालन के लिये दो घंटे के बाद तीव्र रेचक ( जलस्रावक ) सामुद्रेचन ( Magsulph ) छ ड्राम से १ ओस तक पानी में घोलकर पिला देना चाहिये । दस्त की दवा देना आवश्यक होता है । सिद्धान्त यह है कि यमानी सत्त्व के सम्पर्क मे आकर कृमि मूच्छित हो जाते है-मूच्छितावस्था मे उनको आत्र से दूर करने के लिये तीव्र रेचन परमोत्तम साधन है। इसके प्रयोग-काल में मद्य, ग्लिसरीन, क्लोरोफार्म, मक्खन, तैल, एरण्डतल वर्ण्य है। २ पारिभद्रक ( पर्वतनिम्ब) पत्र-स्वरस १ तोला मधु मिलाकर सेवन । ३ केवुक ४ पूतीक स्वरस का मधु के साथ सेवन अथवा ५ वायविडङ्ग चूर्ण आर मधु का सेवन । ६ पलाशवीज-पलाशवीज का स्वरस मधु से या पलाशबीज का कल्क का मढ़े से या पलाशवीज चूर्ण का गुड से अथवा पलाशवीज कपाय का गुड से सेवन कृमिघ्न होता है । मात्रा ३ माशे से ६ माशे तक। पलाशवीज (Butea seeds) यह बडा ही उत्तम योग है । गण्डूपद कृमियो में (Round worms) विशेष लाभप्रद पाया गया है । ७ सुपारी-कच्ची सुपारी को जम्बोरी नीबू के रस के साथ पीने से पुरीपज कृमि ( Thread worms) मे विशेष लाभ-प्रद पाया जाता है । ८. तुम्बी वीज-( कडवे कटू का वीज ) ३ माशे मट्ठे के साथ । ९ कुष्माण्ड बीज का प्रयोग भी कृमिघ्न होता है। मात्रा-३ से,६ माशे। १० नारिकेल जल का मधु के साथ सेवन भी कृमियो को निकालता है। ११. जेवायन-( यमानी ) के बीज का चूर्ण ६ माशे सैन्धव लवण के साथ प्रात. काल मे खाली पेट पर लेने से अजीर्ण, आमवात, शीतपित्त तथा कृमिरोग मे लाभप्रद होता है। जेवायन का गुडके साथ भी प्रयोग कृमिनाशक होता है।
SR No.010173
Book TitleBhisshaka Karma Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnath Dwivedi
PublisherRamnath Dwivedi
Publication Year
Total Pages779
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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