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________________ चतुर्थ खण्ड : नवा अध्याय ३०५ सर्वोपद्रव युक्त, निदोपन अतिसार या विसूचिका मे भी लाभ करती है । वस्तुतः वह अतिम उपचार है । सर्पविष के प्रभाव से शिरागत रक्तस्कदन ( Coagulation ) रुक जाता है और रोगी की प्राणरक्षा सम्भव रहती है । । रोग के सुधार होने पर मूत्र मूत्रोत्सर्जन मे शीघ्रता लाने के । 2 खल्ली - दालचानी, तेजपात, अगर, रास्ना, सहिजन की छाल, कूठ, वच और सोवा के बीज समभाग मे लेकर काजी में पीसकर उबटन लगाना । अथवा नारायण तेल, ईस का सिरका समभाग मिलाकर पूरे शरीर मे रगडना । मूत्रावसाठ --- विसूचिका में यह उपद्रव जलाग के अधिक निकल जाने से तथा हृदय की दुर्बलता से उत्पन्न होता है । अस्तु, थोडा २ द्रव देते हुए, हृद्य औषधियो के प्रयोग (स्वर्ण सिन्दूर, रस सिन्दूर अथवा मकरध्वज ) चालू रखना चाहिये और समय की प्रतीक्षा करनी चाहिये का आना प्रारम्भ हो जाता है । मूत्रावसाद में लिये कुछ स्थानिक उपचार भी प्रशस्त रहते हैं जैसे - १ पेड पर गर्म पानी के बोतल ( Hot water Bag ) का सेक कई बार । २ चूहे की लेडी, चूहे के बिल की मिट्टी, केले को जड, कलमीशोरा को ठंडे पानी मे पीस कर उदर के अवो भाग मूत्राशय क्षेत्र के ऊपर ( पेड पर ) लेप करने से भी मूत्र का बनना और उत्सर्जन प्रारम्भ हो जाता है । विसूचिका मे वमन, अतिसार के बन्द हो जाने पर मूत्र का उत्सर्जन न होना एक अरिष्ट लक्षण है । जब मूत्र त्याग प्रारम्भ हो जाय फिर रोगी के स्वस्थ होने मे कोई भी शंका नही रहती है । ३ स्वर्णसिन्दूर रत्ती, संजीवनी ९ वटी मिलाकर प्रति तीन घण्टे पर देते रहना चाहिये । साथ ही गतपुष्पार्क मे मृतसजीवनी सुरा १० बूंद से ३० बूंद तक मिलाकर देना चाहिये । ये औपधियाँ हृदय में वल देती है, पाचन होती है, जलाश की पूर्ति करती है और रोगी मे मूत्र त्याग की प्रवृत्ति को जागृत करती है । सभी उपद्रवो के शान्त होने पर भी जब तक मूत्रावसाद न दूर हो जावे रोगी की ओर से निश्चिन्त चित्त नही होना चाहिये । 2 पथ्य - अजीर्ण और अग्निमाद्य मे पथ्य समान ही रखना पडता है । पुराना चावल, धान्यलाज, मण्ड, पेया, विलेपी, यवागू, ओदन, जो या गेहूँ की दलिया, मूग की दाल, मूग की दाल की कृशरा, लौकी, परवल, करैला, नेनुवा, तरोई, भूली, अदरक, सेंधानमक, काला नमक, तक्र, सिरका, तीतर लवा-वटेर मृग के मासरस प्रभृति यथावश्यक रोगी को पथ्य रूप मे देना चाहिये । लघु एव परिमित आहार देना चाहिये । हल्दी, धनिया, काली मिर्च, हरा मिर्च, जीरा प्रभूति अग्निवर्धक मसालो का व्यवहार भोजन मे लाना चाहिये । पीने के लिये गर्म करके ast किया जल देना चाहिये । २० भि० सि०
SR No.010173
Book TitleBhisshaka Karma Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnath Dwivedi
PublisherRamnath Dwivedi
Publication Year
Total Pages779
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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