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________________ २६६ भिपकम-सिद्धि चाहिये । इस पथ्य का भी मम्यक् पाक होने लगे तो चावल का गीला मण्डयक्त ओदन (भात) या मयूर या मूंग की दाल युक्त पतली खिचड़ी बनाकर एक दो सप्ताह तक देना चाहिये । रोगी का अग्नि वल अच्छा हो तो चिकित्सा का प्रारभ पतली खिचडी के आहार से भी किया जा सकता है। मण्ड, पेयादि अन्नो को रोगी की रुचि के अनुसार नमकीन ( सेंधा नमक और भुना जीरा से सयुक्त करके ) अथवा मीठा बनाकर मिश्री मिलाकर दिया सकता है । इसके पश्चात् पचन की दगा के सुधरने पर रोगीको चावल-दाल देना चाहिये । जब यह पचने लगे तो उसको एक समय चावल-दाल दूसरे समय रोटी-दाल पथ्य त्पमें देना चाहिये। इस सादे आहार पर बाद मे रोगी को रोगमुक्त होने पर भी रखना चाहिये । अधिक गरिष्ठ भोजन, घी या तेल मे तली पूढी, पृवा, माल पूबा, जलेबी नादि, अधिक मात्रा मे गाक-सब्जी, पत्र-गाक, गर्म मसालेदार भोजन का सदा के लिये परिहार करना आवश्यक होता है। ग्रणी रोगी के आहार को सदैव पचकोल युक्त करके देना चाहिये। इसके लिये विधि यह है कि पचकोल का चूर्ण पर्याप्त मात्रा में बनाकर एक शीशी में भरकर रख लेना चाहिये और एक से मागे की मात्रा में मण्ड, पेया, विलेपी, यवाग, खिचडी, दाल मे छिडक लेनी चाहिये । इम दीपन पाचन योग से संस्कृत पच्य सुपाच्य बोर लघु हो जाता है । अग्नि दीप्त होती चलती है। अस्तु इसका प्रयोग रोगी को पथ्य में करना सदैव लाभप्रद होता है। ऊपर मे ग्रहणी रोग मे तक्र की प्रशसा हो चुकी है। तक इस रोगी को अग्नि वल के अनुसार प्रारभ से ही देना गम्भ कर देना चाहिये । अन्न काल में तथा दिन के अन्य भाग में इसका उपयोग लाभप्रद रहता है। तक को रोगी की रुचि के अनुसार पंचकोलयुक्त या भुनाजीरे का चूर्ण और सेंधा नमक युक्त करके देना चाहिँ । यदि रोगी को नमकीन तक रुचिकर न प्रतीत हो तो मिश्री मिलाकर, या केवल सादा, परन्तु पंचकोल से संयुक्त करके देना चाहिय । ग्रहणी के रोगी में अन्न मे रुचि जागत करने के लिये कागजी नीबू या नीबू का अचार दिया सकता है। इससे अन्त में रुचि पैदा होती है और पेया यदि पथ्य का परिपाक भी उत्तम होता है। पके अनार या वेदाना का रन भी उत्तम पाया गया है-अस्तु अन्नकाल के अतिरिक्त समय में दिन में भूख लगने पर उने वेदाना का रन, मित्री या मधु देना चाहिये। माक-सब्जी का प्राय प्रयोग नही करना चाहिये, विशेषत पत्रगाको का। क्योकि इनके दुर्जर होने से अतिसार में सहायता मिलती है। गूलर या प्याज के गाक भो दिया जा सकता है। परन्तु इसका प्रयोग कुछ विलम्ब से सप्ताह दो
SR No.010173
Book TitleBhisshaka Karma Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnath Dwivedi
PublisherRamnath Dwivedi
Publication Year
Total Pages779
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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