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________________ चतुर्थ खण्ड : सप्तम अध्याय २६५ दूसरा वर्ग उपद्रुत गहणी रोगियो का होता है । जिनमे रोगी को चिकित्सालय मे प्रविष्ट करके वैद्य के साक्षात् निरीक्षण मे रहते हुए बिना अन्न के ( निरन्नचिकित्मा ) चिकित्सा करने की आवश्यकता रहती हैं । इन रोगियो को अन्न व्यतिरिक्त दूध, तक्र या दूध और फल के ऊपर रखकर चिकित्सा की जाती है । ग्रहणी की चिकित्सा मे बहुत प्रकार के चूर्ण, कपाय, गुटिका, मोदक, अवलेह, तक्रिया प्रभृति काष्ठोपवियो के योग ( काष्ठौधि पाचन ) तथा पारद-गधक की कज्जली, पर्पटी तथा रसोपधियो के बहुत से योग ( पारद के पाचको ) का व्यवहार पाया जाता है । साधारण रोगियो मे काष्ठौषधियो के पाचको से ही रोग ठोक हो जाता है, परन्तु जब रोग अधिक वढा हुआ रहता है तो काष्ठौषधियो के पाचको से काम नही चलता है । ये स्वय पचन संस्थान के लिये भारभूत हो जाती है । इस अवस्था मे पारद के पाचक योगो को आवश्यकता पडती है । ये पारद के पाचन भी वहुत प्रकार के होते है जैसे- पारा - गधक को कज्जलो के साथ अन्यान्य भस्म तथा काष्ठीपधियो के योग से वने योग तथा पारद-गधक की कज्जली या उससे बने पर्पटी के योग | अस्तु पारद के पाचको मे भी कुछ ऐसे योग है जिनका उपयोग केवल चलते-फिरते रोगियो मे सुपाच्य अन्न या आहार देते चिकित्सा मे किया जाता है । कुछ ऐसे भी योग है जिनका सामान्य प्रयोग न होकर कल्प- चिकित्सा के रूप मे हो प्रयोग किया जाता है । इन औषधियो मे अधिकतर पर्पटी के योग ही व्यवहृत होते है । इसके लिये रोगी को दूध या तक्र पर रखकर रोगी एव रोग केवलावल का विचार करते हुए एक छोटी मात्रा से आरभ करके क्रमश बढाते हुए एक सीमित मात्रा तक ले जाते है, पुन क्रमश घटाते हुए आरभ के मात्रा पर ले आकर दवा देना वद कर देते है । इस विधि को वर्धमान पर्पटी प्रयोग या पपटीकल्प प्रयोग कहा जाता है। इस प्रकार दो प्रकार की चिकित्सा का प्रयोग ग्रहणी रोग विशेषत पर्पटी के सम्बन्ध मे करना होता है । १ सामान्य प्रयोग तथा २ विशेष प्रयोग था पर्पटी कल्प | सामान्य प्रयोग या वातातपिक चिकित्सा - ( Outdoor treatment ) या सान्नचिकित्सा आहार - रोगी को लघु और सुपाच्य आहार देना चाहिये । एतदर्थ सर्व प्रथम रोगी की चिकित्सा मे आने के साथ ही उसे मण्ड पर तीन दोनो तक रख कर औषधि का प्रारंभ करना चाहिये । मण्ड के लिये धान्य लाज या चावल की लाई, पुराना चावल या पुराने साठी के चावल का उपयोग करना चाहिये । फिर उससे गाढा पथ्य कुछ अन्नयुक्त मण्ड जिसे विलेपी कहते है तीन दिनो तक देना
SR No.010173
Book TitleBhisshaka Karma Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnath Dwivedi
PublisherRamnath Dwivedi
Publication Year
Total Pages779
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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