SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 227
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तृतीय खण्ड . द्वितीय अध्याय १७७ वैद्यः स्याद् गुरुसन्निधानकुशलः पीयूपपाणिः शुचिः प्रज्ञः कालवयोवलौपधमढज्ञानोदितः शास्त्रवित् । धीरान्तःकरणः क्रियासु कुशलः कारुण्यपूर्णः स्पृहायुक्तो " " यन्त्रमन्त्रचतुरो वाग्मी प्रगल्भः शुचिः। गुरोरधीताखिलवैद्यविद्यः पीयूपपाणि कुशल क्रियासु । गतस्पृहो धैर्यधरः कृपालुः शुद्धोऽधिकारी भिपगोदृशः स्यात् । (वै जी.) चरक सहिता मे तीन प्रकार के वैद्यो का प्रसग आता है। १ छद्मचर २ सिद्धमाधित ३ वैद्य के गुणो से युक्त प्राणाभिमर या जीविताभिसर । इन मे प्रथम वर्ग तो उन वैद्यो का है, जो वैद्य के भाण्ड (वर्तन), औषध, पुस्तक या पल्लव आदि का अवलोकन ( देखने ) मात्र से अपने को वैद्य मान लिये है । ये वैद्य नही वैद्यो की छायामात्र ( प्रतिरूपक ) है। दूसरावर्ग उन वैद्यो का है जो किसी श्रीमान् , यशोमान् एव ज्ञानवान् वैद्य की सेवा मे रह कर उनकी कृपा से वैद्य नामधारी बन गये है-अस्तु इन को सिद्धसाधित की सज्ञा दी गई है। तीसरा वर्ग उन वैद्यो का है जो प्रयोग, ज्ञान, विज्ञान और सिद्धि से सम्पन्न है और दूमरे को सुख देने वाले है-और रोगी के प्राण की रक्षा करते हुए रोग को दूर करने में समर्थ होते है । वास्तव में यही श्रेष्ठ वैद्य है तथा पूर्वोक्त दोनो वर्ग तो केवल वैद्यनामधारी मात्र है। भिपक्छनचराः सन्ति सन्त्येके सिद्धसाधिताः। सन्ति वैद्यगुणयुक्तास्त्रिविधा भिपजो भुवि ।। वैद्यभाण्डौपधै पुस्तैः पल्लवैरवलोकनैः। लभन्ते ये भिषकशब्दमज्ञास्ते प्रतिरूपकाः।। श्रीयशोज्ञानसिद्धानां व्यपदेशादतद्विधाः। वैद्यशब्दं लभन्ते ये ज्ञेयास्ते सिद्धसाधिताः ॥ प्रयोगज्ञानविज्ञानसिद्धिसिद्धाः सुखप्रदाः। जीविताभिसरास्ते स्युर्वेद्यत्वं तेष्ववस्थितम् ।। इति ॥ (च सू११) महर्षि चरक ने लिखा है-न अपने लिये, न अपनी इच्छावो की पूर्ति के लिये, अपित प्राणियो पर दया की दृष्टि से जो वैद्य चिकित्सा करता है वह सर्वोत्तम है। होनहार वैद्य को चाहिये कि वह गुणो को प्राप्त करने के लिये सतत उद्योगशील रहे ताकि प्राणियो के दुखो को दूर कर उन्हे स्वस्थ बना सके । वैद्य को चाहिये कि पहले वह रोग की ठीक-ठीक परीक्षा करे पश्चात् विचारपूर्वक १२ भि० सि०
SR No.010173
Book TitleBhisshaka Karma Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnath Dwivedi
PublisherRamnath Dwivedi
Publication Year
Total Pages779
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy