SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 226
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भिपक्कर्म-सिद्धि चरके तु द्विधा प्रोक्ता दैवयुक्तियपाश्रयात् । शरीर के दोषो के प्रकोप से होने वाली शरीर गत व्यावियों में शरीर के आश्रय के आधिभौतिक उपचारो के प्रायः तीन प्रकार हो जाते है १ अन्त परिमार्जन, २ वहि परिमार्जन तथा ३ शस्त्रप्रणिधान । अन्त परिमार्जन का अर्थ होता है, ओषधि का शरीर के भीतर प्रवेश कराके मिथ्याहार विहार ने उत्पन्न दोपो का प्रमार्जन करना । वहि: परिमार्जन का अर्थ होता है ओपधि के वाह्य प्रयोग के द्वारा त्वचादि पर अभ्यंग, स्वेद, लेप, परिपेक आदि के द्वारा दोपो का प्रमार्जन या रोग का दूर करना । शस्त्रप्रणिवान का अर्थ होता है गल्यकर्मीय चिकित्सा जिसमे छेदन, भेदन, व्यवन, दारण, लेखन, उत्पाटन, प्रच्छान, सीवन, एपण, क्षार, अग्नि तथा जलीका प्रभृति यत्रोपयंत्र तथा शस्त्रास्त्रो के द्वारा दोपो का प्रमार्जन या रोग की चिकित्सा करना । १७६ प्रायगस्त्रिविधमीपवमिच्छन्ति "शरीर दोपप्रकोपे खलु गरीरमेवाश्रित्य अन्त परिमार्जन वहि परिमार्जनं शस्त्रप्रणिधानञ्चेति । तदन्त परिमार्जन यदन्तःशरीरमनुप्रवेयपथमाहारजातन्यावीन् प्रमाष्टि, यत्पुनर्वहि स्पर्शमाश्रित्याभ्यङ्गस्वेटप्रदेहपरिपेकोन्मर्दनाद्यं रामयान् प्रमाष्टि तद्बहिः परिमार्जन, वस्त्रप्रणिधानं पुनश्छेदनभेदनव्यधनदारणलेखनोत्पाटनप्रच्छन सी वनैपणक्षारजलौकसरचेति ।" (च. सू ११ ) चिकित्सा के चतुष्पाद: - चिकित्सा के चार पैर वतलाये गये हैं, वैद्य, परिचारक, ओपधि तथा रोगी इनमें प्रत्येक पैर के चार गुण गिनाये है । भिपग् द्रव्याण्युपस्थाता रोगी पादचतुष्टयम् । चिकित्सितस्य निर्दिष्टं प्रत्येकं तच्चतुर्गुणम् ॥ वैद्य या भिषक् — गुरु के मुख से सुनकर वैद्यक शास्त्र पढा हुआ, चतुर, प्रत्यक्षक्रियात्मक ज्ञान प्राप्त किया हुआ तथा स्वच्छता पूर्वक रहने वाला होना चाहिये । दक्षस्तीर्थात्तशास्त्रार्थो दृष्टकर्मा शुचिर्भिषक् । ( च ) वैद्य के गुणो का वर्णन करते हुए कई ग्रथकारो ने निम्न लिखित की भाँति वर्णन किया है । गुरु के सन्निधान मे रहकर कुशल हुआ पीयूपपाणि ( जिस के हाथ मे अमृत का वाम हो ), पवित्र, दक्ष, रोग मे काल-वय-वलके अनुसान ओषधयोजना में कुगल, शास्त्र का ज्ञाता, अन्तकरण मे धैर्य वाला, क्रियाकुल, करुणापूर्ण स्पहावाला यंत्र, तंत्र और मंत्र में कुशल, चतुर, वाग्मी, प्रगल्भ ओर नीरोग वैद्य को होना चाहिये ।
SR No.010173
Book TitleBhisshaka Karma Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnath Dwivedi
PublisherRamnath Dwivedi
Publication Year
Total Pages779
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy