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________________ १६६ भिषक्कम-सिद्धि आगन्तुक रोग दो प्रकार के होते है-एक मन के दूसरे गरीर के । इन दोनो की चिकित्सा भी दो प्रकार की होती है। गारीरिक रोगी में शरीर का उपचार तथा मानस रोगो मे मन सम्बन्धी उपचार जैसे गन्द-स्पर्श-रूप-रस-ांव का सुखप्रद उपयोग हितकर होता है। 'आगन्तवस्तु ये रोगास्ते द्विधा निपतन्ति हि । मनस्यन्ये शरीरेऽन्ये तेपान्तु द्विविधा क्रिया ।। शरीरपतितानां तु शारीरवद्रुपक्रमः । मानसानां तु शब्दादिरिष्टो वगे. सुखावहः ।। (सु सू १) उत्पत्ति के भेद से व्याधि के दो भेद होते है। पापज और कर्मज । पापज व्यघि वह है जो इस जन्म में किये गये मिथ्या आहार-विहारादि रूप पाप से उत्पन्न होती है। इसी को अन्य स्थानो पर दोपजन्य ( वात-पित्त एवं कफजन्य ) भी कहा गया है ।' पापज व्यावियाँ औपध-सेवन तथा उत्रित पथ्याचरण से निवृत्त हो जाती है । कर्मज व्याधि वह है जो निदान-पूर्वरूप-रूप बादि से निर्णय करके उचित चिकित्सा करने पर भी विनष्ट नहीं होती। तत्रैकः पापजो व्याधिरपरः कर्मजो मतः। पापजाः प्रशमं यान्ति भैषज्यसेवनादिना ।। यथाशास्त्रविनिर्णीतो यथाव्याधिचिकित्सिताः। न शमं याति यो व्याधिः स बेयः कमजो बुधैः ।। (भै र ) रोग प्राणियो के गरीर को कृश करने वाले, बल का तय करने वाले, क्रियाशक्ति को कम करने वाले, इन्द्रियो की शक्ति को जो करने वाले, सर्वाङ्ग में पीड़ा पैदा करने वाले, सभी पुत्पार्थो-धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, के वावक तथा प्राण को नष्ट करने वाले होते हैं। इनकी उपस्थिति में प्राणियो को सुख नहीं मिलता है। आयुर्वेद इन अपकारी रोगो से प्राणियो को मुक्ति दिलाता है। रोगाः काश्यंकरा बलक्षयकरा देहस्य चेष्टाहरा वटा इन्द्रियशक्तिसंक्षयकराः सर्वाङ्गपीडाकराः॥ धर्मार्थाखिलकाममुक्तिपु महाविन्नस्वरूपा बलान् प्राणानाशु हरन्ति सन्ति यदि ते क्षेमं कुतःप्राणिनाम् ।। व्याधि का सामान्य हेतु-काल (ऋतु, अवस्था आदि परिणाम), अर्थ (पंच ज्ञानेन्द्रियों के शब्द, स्पर्श, रूप, रम और गंव प्रभृति व्यापार) तथा कर्म ( कर्मेन्द्रियो के कर्म उत्क्षेपण-अपक्षेपग-आकुंचन-प्रसारण-गमनाटि
SR No.010173
Book TitleBhisshaka Karma Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnath Dwivedi
PublisherRamnath Dwivedi
Publication Year
Total Pages779
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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