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________________ तृतीय खण्ड प्रथम अध्याय अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रित । प्राणपानसमायुक्त पचाम्यन्नं चतुर्विधम् ॥ (गीता) आयुर्वेण वलं स्वास्थ्यमुत्साहोपचयौ प्रभा । ओजस्तेजोऽग्नय प्राणाश्चोक्ता देहाग्निहेतुका ॥ शान्तेऽग्नौ म्रियते युक्ते चिरं जीवत्यनामयः। रोगी स्याद्विकृते मूलमग्निस्तस्मान्निरुच्यते ।। (च चि १५) 'शमप्रकोपौ सर्वेषां दोपाणामग्निसंश्रितौ । रोगाः सर्वेऽपि मन्देऽग्नौ ।' व्याधि या रोग–'विविध दुखमादधतीति व्याधय' पुरुप को जिमके सयोग से दुख होता है उसे व्याधि कहते है। तीनो दोषो ( वात-पित्त-कफ) की साम्यावस्था आरोग्य और विषमावस्था रोग है। तत्प्रतिकूलवेदनीयं दुःखम् । (पा योग दर्शन) तदुःखसंयोगा व्याधय उच्यन्ते । ( सु सू १) रोगस्तु दोपवैपम्यं दोषसाम्यमरोगता। ( वा ) विकारो धातुवैपम्यं साम्यं प्रकृतिरुच्यते । सुखसंज्ञकमारोग्यं विकारो दुःखमेव च। (च) दोषाणा साम्यमारोग्यं वैषम्यं व्याधिरुच्यते । सुखसंज्ञकमारोग्यं विकारो दुखमेव च ॥ (भै र.) व्याधियाँ चार प्रकार की होती है । १ आगन्तुक, २ शारीरिक, ३ मानसिक ४ स्वाभाविक । इनमे आगन्तुक रोग अभिघातज (आकस्मिक कारणो से), तथा शारीरिक आहार-विहार के असयम से अथवा वात-पित्त-कफ-रक्तादि की विषमता से होते है । मानसिक रोग क्रोध, शोक, भय, ईर्ष्या, असूया, दोनता, मात्सर्य, काम, क्रोध और लोभादि के मनोवेगो के सयम न होने अथवा इच्छा एव द्वष के विविध भेदो से होते है। इनके अलावे स्वाभाविक रोग क्षुधा, तुषा, निद्रा, वार्द्धक्य और मृत्यु आदि है। कालस्य परिणामेन जरामृत्युनिमित्तजाः। रोगाः स्वाभाविका दृष्टाः स्वभावो निष्प्रतिक्रियः ।। चरक ऋपि ने रोगो के तीन प्रकार बतलाये है 'निजागन्तुमानसा ।' इनमे निज-शरीरदोपसमुत्थ, आगन्तुक-विप-वायु-अग्नि-सम्प्रहारजन्य तथा मानस रोग-इप्ट की सम्प्राप्ति न होने और अनिष्ट की प्राप्ति होने से उत्पन्न होते है। ये सभी प्रकार के रोग मन एवं शरीर दोनो का आश्रय कर उत्पन्न होते है । “विविधमाधि दुखमादधाति शरीरे मनसि चेति व्याधि ।"
SR No.010173
Book TitleBhisshaka Karma Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnath Dwivedi
PublisherRamnath Dwivedi
Publication Year
Total Pages779
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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