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________________ द्वितीय खण्ड : प्रथम अध्याय १०५ वहुत ऐ सेसे ग्लेष्मबहुल रोग है जिनमे मेद के प्रयोग से उसकी वृद्धि होने लगती है। इन व्यक्तियो मे स्नेह का निषेध है। क्योकि इन व्यक्तियो के रोगो मे चिकित्सा का लक्ष्य वृहण न होकर कर्षण रहता है। इन कफ और मेदोबहुल व्यक्तियो मे रूक्षण करना ही अधिक प्रशस्त है। जिन व्यक्तियो का मुख और गुदा अभिष्यन्न है, मदाग्नि से नित्य पीडित व्यक्ति, मद-तृष्णा और मूर्छा मे पडा व्यक्ति, तालु शोप से पीडित व्यक्ति, अजीर्णी ( dyspeptic ), तरुण ज्वरी (acute fever ) जिनको वस्ति एव विरेचन दिया हो ऐमा व्यक्ति, वमनयुक्त व्यक्ति, अकाल मे प्रसूता स्त्री, अकाल मे, दुर्दिन मे, उदर और गर रोग से पीडितो मे महादोष युक्त व्याधियो मे, मर्म के रोगो में तथा उरुस्तभ प्रभृति रोगो मे भी स्नेहन नही करे। स्नेहन से व्याधि बढ जाती है। __ बहुत से एमे रोग है जैसे। कुष्ठ, शोथ, प्रमेह आदि जिनमे स्नेहन की आवश्यकता नहीं रहती। यदि स्नेहन करना भी हो तो विशिष्ट औपधियो से सस्कार किये गये स्नेहो के द्वारा ही करना चाहिए। आयुर्वेद के ग्रन्यो मे रोगानुसार बहुत से स्नेहो के अनेक योग मिलते है । संस्कृत या सिद्ध स्नेह-औषधियो के योग से पके हए ये स्नेह दो प्रकार के है-१ आमिष जिनमे औपधियो के साथ-साथ मास भी पडा हो जैसे छागलाद्य घृत या मयूराद्य घृत या कुरङ्ग घृत आदि, २ निरामिप जिसमे केवल विशद्ध काष्ठीचियाँ ही पडी हो, जान्तव मेद का भाग न हो जैसे कल्याण घृत, चैतस घृत आदि । रोगानुसार कथित स्नेह पुन. दो प्रकार के है-घृत के योग विभिन्न घृतो के नाम से तथा तैल के योग विभिन्न सिद्ध तैलो के नाम से । इनमे घृत का प्रयोग प्राय मुख से सेवन करने के रूप मे और तैलो का प्रयोग वाह्य अभ्यग के रूप मे अधिकतर होता है। जैसा कि पूर्व मे हो कथन हो चुका है, जीवतिक्ति ए ओर डी की पूर्ति इन विभिन्न घृत और तैलो से होती है जिससे शरीर को सरक्षण शक्ति ( promotion of resistance ) बढती है । वैज्ञानिको के अन्वेपणो से यह सिद्ध है कि कई अवस्थाओ मे (जैसे बाल-शोप मे ) मुख द्वारा सेवन किया विटामिन ए और डो लाभप्रद नही होता। उस अवस्था मे त्वचा के द्वारा अभ्यग करते हुए सूर्य प्रकाश की सहायता से वह कार्यकर होता है। प्राचीन आचार्यों ने भी त्वचा से अभ्यग के रूप में इन जीवतिक्तियो के शोपण के विचार से विभिन्न तैलो का निर्माण और उपयोग बतलाया है । ये तेल वडे वृष्य, वाजीकर और बल्य है। उनके अभ्यग और पान से विविध प्रकार की व्याधियाँ दूर होती है ।
SR No.010173
Book TitleBhisshaka Karma Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnath Dwivedi
PublisherRamnath Dwivedi
Publication Year
Total Pages779
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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