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________________ १०६ भिपकर्म-सिद्धि तैलो पर विचार किया जाय तो तेल भी दो प्रकार के है वेदनाहर या कण्डूहर ( analgesic, antipruritic iniments) के रूप में जिनका प्रयोग केवल बाह्य उपयोग के रूप में होता है और बहुत प्रकार के विपी के योग से बने रहते है, गोफ एवं पीडायुक्त स्थलो पर मालिश के रूप में व्यवहत होकर पीडा का गमन करते है जैसे विप तैल, विपगर्भ तेल, सैन्धवादि तेल और पंचगुण तेल आदि । कुछ खुजली आदि की गान्ति के लिए ( antipruntic ) व्यवहृत होते है जैसे, मरिचादि तैल, अर्क तेल आदि । वल्य एव वृहण ( tonics ) के रूप में पाये जाने वाले तैल इनमे शतावरी, असगंध, वला चतुष्टय, दूध, घृत आदि वल्य और रमायन ओपधियो के योग से पक्व होकर बने है। ये त्वचा से शोपित होकर गरीर का बल बढाते है । वास्तविक स्नेह के लक्ष्य को पूरा करने वाले यही तैल है। इनका मुख से और वाह्य त्वचा से भी उपयोग होता है। जैसे नारायण तैल, विष्णु तैल एवं वला तैल आदि । तेल और घृतो पर ध्यान दिया जाय, तो उनके भेद क्रमग. तैल ( Vegetable source ), घृत ( animal source ) है । औपधियो के योग और यग्निपाक से वे कई गुना अधिक गुण के हो जाते हैं। सीपवियो के पाक से उन-उन विभिन्न औपवियो की वसा में घुलनगीलता ( fat soluble properties ) मा जाती है। इसीलिये रोगानुसार विभिन्न समुदाय की योपवियो के नमुदाय से पाक भी बतलाया गया है। थोडा और विचार करे तो वह भी स्पष्ट हो जाता है कि तैलो का निर्माण सर्वोत्तम तैल-तिल के तैल से और वृतो का निर्माण सर्वोत्तम घृत-गोघृत से होता है। इस विशेषता की वजह से भी साधारण वना के योगो से शास्त्रोक्त ये घृत अधिक लाभप्रद व्हरते है। कालक्रम २इन घृतो का प्रचलन अव कम होता जा रहा है। चरक को चिकित्ला देगें तो कोई रोग का अधिकार नहीं जिसमे दो चार वृतो का उल्लेख न माया हो, परन्तु आजके कृत्रिम युग मे शुद्ध घृत ही दुर्लभ होता जा रहा है तो मिद्धघृतो का पूछना ही क्या है, परन्तु इस चिकित्सा को पुन जागृत करना मावश्यक है। नवघृत और पुराणवृत-वृत दो प्रकार के पाये जाते है । नवघृत जो घी ताजा या अधिक से अधिक एक वर्ष के भीतर का हो। दूसरा पुराण अर्थात् एक वर्ष से अधिक पुराना । वास्तव में इस वर्ष का पुराना घी ही पुराणघृत है। उससे कम पुराने गे में पुराण वृत का गुण नही पाया जाता । सौ
SR No.010173
Book TitleBhisshaka Karma Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnath Dwivedi
PublisherRamnath Dwivedi
Publication Year
Total Pages779
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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