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________________ [२६] हम 'ब्रह्म' शब्दको जीव-अजीवका द्योतक माने जैसा कि प्रगट किया गया है तो उसका सामजस्य जैन सिद्धान्तसे ठीक बैठता है ! उपनिषध कालमें जैनधर्मका मस्तक अवश्य ऊँचा रहा था, यह बात 'मुण्डकोपनिषद' एवं 'अथर्ववेद के उल्लेखोसे प्रमाणित है; जैसे कि हम अगाडी देखेंगे। जर्मनीके प्रसिद्ध विद्वान् हर्टलसाने यह सिद्ध किया है कि 'मुण्डकोपनिषद में करीब२ ठीक जैनसिद्धांत जैसा वर्णन मिलता है और जैनोंके पारिभाषिक शब्द भी वहां व्यवहृत हुये हैं। तिसपर जैनोंके 'पउमचरिय' नामक प्राचीन अन्यसे 'मुण्डकोपनिषद' के कर्ता ऋषि अंगरिस जैनोंके मुनिपदसे भ्रष्ट हुये प्रगट होते हैं। उन्होंने अपने ग्रन्थोंमें वैदिक धर्मको जैनधर्मसे मिलता जुलता बनानेका प्रयत्न इसीलिये किया था कि वैदिक धर्मावलम्बी जैनधर्मकी ओर अधिक आकृष्ट न हो। प्राचीन 'ब्रह्मविदों' के 'इलोक साहित्य के जो यत्रतत्र अंश मिलते हैं; उनका यदि विशेष अध्ययन किया जाय तो हमें विश्वास है किउनकी शिक्षा जैनधर्मके विरुद्ध नहीं पड़ेगी। 'कठोपनिषद' में (२-६-१६) प्राप्त 'श्लोक साहित्य का एक अंश हमने देखा है और उसमें जैनधर्मसे कुछ भी विरोध नहीं है। जैन मान्यताके मनुसार यह प्रगट है कि जैन-वाणी (हादशांग श्रुतज्ञान)की सर्व प्रथम रचना इस कालमें ऋषभदेव हारा हुई थी और वह श्लोक १-धीर वर्ष ५ पृ. २३८ । इन्डो-टेरनियन मृल ग्रन्थ और मनोधन मा. ३ व 'धर्मध्वज' वर्ष ५ अक १५० ९ । ३-विपके दिये देयो 'वीर' वर्ष ६ में प्रकट होनेवाला 'ऋपि अगरिस मोर उनम' शीप रेग।
SR No.010172
Book TitleBhagavana Parshvanath
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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