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________________ [२५] पर्व ० ३ लो० २६-२७ में भी जैन मुनियोंका उल्लेख 'नग्न क्षपणक के रूपमें है । 'अद्वेतब्रह्मसिद्धि' नामक हिन्दू ग्रन्थके कर्ता क्षपणकके अर्थ जैन मुनि करते हैं। यथाः " क्षपणका जेन मार्ग सिद्धांत प्रवर्तक इति केचित ।" (ए० १६९) अन्य श्रोतोंसे भी क्षपणपके अर्थ यही मिलते हैं। इसके साथ ही महाभारत शांति पर्व, नोक्षधर्म अ० २१९ श्लो०६में सप्तभंगी नयका उल्लेख है। फिर इसी पवेके अ० २६३ पर नीलकंठ टीकामें ऋषभदेवके पवित्र चरणका प्रभाव आहेतो वा नेनोपर पड़ा कहा गया है। इन उल्ले-खोंसे महाभारतकालमें भी जैन धर्मका प्रचलित होना सिद्ध है। भगवान् पार्श्वनाथके पहले से उपनिषधोंका बहु प्रचार होरहा था और उस समय भी जैनधर्मका अस्तिउपनिषदोंमें जैनधर्म । त्व यहां प्रमाणित है । उपनिषधोंसे यह बात प्रगट है कि वेदोंके साथ ही कोई वेदविरोधी ऐसे तत्ववेत्ता अवश्य थे जिनकी 'ब्रह्मविद्या' (आत्मविद्या)के आधारपर उपनिषधोंकी रचना हुई थी। श्रीयुत उमेशचन्द्रनी भट्टाचार्यने यह व्याख्या अन्यत्र अच्छी तरह प्रमाणित कर दी है। उनका कहना है कि इस समय उस ब्रह्मविद्याका प्रायः सर्वथा लोप है। उसके बचे-खुचे कुछ चिन्ह उपनिषधोंमें ही यत्रतत्र मिलते हैं। उस समय वेदों और उपनिषधोंके अतिरिक्त ब्रह्मविद्या विषयक साहित्य 'लोक' नामसे अलग प्रचलित था। अब तनिक विचारने की बात है कि उपरोक्त ब्रह्मवादी कौन थे ? यदि १-पश्चतत्र ५।१ । २-जैन इतिहास सीरीज भा० १ पृ० १३ ॥ ३-इंडियन हिस्टोरीकल क्वारटी भा० ३ पृ. ३०७-३१५ । - -
SR No.010172
Book TitleBhagavana Parshvanath
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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