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________________ (१३०) ' उद्धरेदात्मनाऽऽत्मान, नात्मानमवसादयेत् । , . आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ॥ - . अर्थात्-मनुप्य अपनी आत्मा का स्वय उद्धार करे, उसे अधोगति मे ले जाने का वह यत्न न करे । क्योकि यह अपना शत्रु-स्वय ही है। बुराई के साचे मे ढलकर मनुष्य स्वय अपना शत्रु और जीवन पर अच्छाइयो का रग, चढाने पर यह स्वय अपना-मित्र वन-जाता है। भाव यह है कि आत्मजागरण की अगडाई लेकर मनुष्य सब कुछ कर सकता है । अपने उद्धार के लिए.उसे ईश्वर का मुख ताकने की आवश्यकता नही है । ", ईश्वर भाग्य-विधाता नही है- - " वैदिक धर्म का विश्वास है कि ईश्वर मनुष्य के तथा ससार के समस्त चराचर प्राणियो के भाग्य का निर्माण करता है, इस लिए 'वह' भाग्यविधाता है। किन्तु जैनधर्म · का ऐसा विश्वास नही है । जैनधर्म कहता है कि भाग्य का निर्माण मनुप्य स्वय करता है। वह अपने ही 'शुभाशुभ चिरण के द्वारी अपने भाग्य के महल को खंडा कर लेता हैं, ईश्वर का उस से कोई सम्बन्ध नही है। यदि ईश्वर को मनुष्य के भाग्य का निर्माता मान लिया जाएगा तो यह भी मानना पडेगा कि मनुष्य जीवन मे जो दुराचारप्रधान प्रवृत्तिया पाई जाती है, वे भी ईश्वर ही कराना है। क्योकि ईश्वर ने मनुष्य का जैसा अशुभ भाग्य बना दिया है, वह उसी के अनुसार ससार मे अशुभ प्रवृत्ति या करता है ।" इस तथ्य को एक उदाहरण से समझिए। कल्पना करो। ईश्वर ने एक व्यक्ति को कसाई बना दिया है, चोरं या डाकू बना दिया है तो निश्चित है कि वह अपने स्वभावानुसार -- -
SR No.010169
Book TitleBhagavana Mahavira ke Panch Siddhant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages225
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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