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________________ ( २८ ) हो तो इस हिंसा-कार्य को फिर छोड़ दो। पहले की प्रतिज्ञा को याद करो! __ योगिराज अजितंजय की वाणी मे जादू था। आत्मा की वाणी को आत्मा क्यों न समझे ? सिंह की आत्माभी दर्शन-बानगुणों से ओत-प्रोत थी-अन्तर केवल इतना था कि अज्ञान के कारण वे गुण ढके हुये थे । योगिराज ने उसका परदा हटा दिया, सिंह के जीव को पहले जन्मों की याद आ गई। शिकार से उसे घृण हो गई-मुनिराज के चरणों में सिर रखकर वह आंसू बहाने लगा । 'पशु सूक हैं। मानव की यह मान्यता है, परन्तु उनकी अपनी वाणी है, अपनी समझ है। इसे वह भूल जाता है। किसी सरकस के शिक्षक से पूछिये । वह आपको पशुओं के ब्रान की अद्भुत बातें बतायेगा । उस पर अजितंजय तो महान् योगिराट् थे। उनकी आध्यात्मिक्ता और अहिंसा संस्कार ने सिंह को ज्ञान नेत्र दिया, तो इसमें आश्चर्य ही क्या ! अजितंजय ने सिंह के भावों को बुद्ध करने के लिये कहा. "पशुपति! घवरात्रो नहीं! तुम्हारी आत्मा अनन्त ज्ञानवान और शक्तिशाली हैं। ठीक दिशा में चलो, अहिंसा को पालो, तुन्हारा उद्धार होगा । मैंने तीर्थकर श्रीवर के मुखारविन्द से सुना है कि तुन्दारा जीव दशवें जन्म में भरत क्षेत्र का अन्तिम तीर्थकर महावीर वर्द्धमान होगा। तीर्थकर भगवान् के वचन पर श्रद्धा करो, नुन्दारा भला होगा। मुनिराट् यह कहकर अन्तर्धान हो गये। सिंह नंयमी जीवन विताने लगा । समता भाव से प्रात दिर्जन करके उसा जीव सौधर्म स्वर्ग में देव हुआ।
SR No.010164
Book TitleBhagavana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Parishad Publishing House Delhi
PublisherJain Parishad Publishing House Delhi
Publication Year1951
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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