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________________ ( २७ ) भोगना ही पड़ता है। पुरुरवा भील का जीव अच्छी करनी से दंब और नारायण हुआः किन्तु वही विपयासक्त और कर्त्तव्यहीन होकर नरक का अधिकारी वना ! नरक से भी बदतर पशु जोवन उसने पाया। वह दो बार सिंह हुआ।भौतिकता मे पशुता अन्तर्निहित है । जव पशु संस्कार की बहुलता हुई तो जीव को पशुपर्याय मिलना ही थी। भौतिकता परले सिरे की वंचकता ही तो है-अपने आत्मस्वरूप से परा दुराव-मायाचारी जो उसमें है। किन्तु पुरुरवा के जीव ने अहिंसा-संस्कार का बीज अपने अन्तर मे वो लिया था-वह दव जरूर रहा था-वाह्य संसर्ग और मिथ्यादर्शन ने उसे उसकी ओर से बेसुध कर दिया था-वह पराजित हो गया था। किन्तु उसका भविष्य उज्ज्वल था। वाह्यनिमित्त मिलने से जीव की काया पलट होती है-अन्तर में ईश्वरीय ल्य का प्रकाश जो विद्यमान है। पुरुरवा का जीव सिन्धु नदी के किनारे हिमवत पर्वत की खोह मे सिंह की पर्याय मे रह रहा था। उसकी होनी अच्छी थी-उसे तो तीर्थकर होना था। अजितंजय मुनिराज का संसर्ग उसे मिला । सत्य और अहिंसा के प्रकाश-पुञ्ज थे वह । उनके दिव्य-प्रकाश ने सिंह की पशुता नष्ट कर दी। सिंह ने हिरण का शिकार किया था। अजितंजय बोले, "मृगपति ! तुम अपने को भूल गये। पहले के एक जन्म में मनुष्य होकर तुम पशु बने थे। पुरुरवा तुम्हारा नाम था। तुमने तव हिंसा करना छोड़ा था और स्वर्गों के सुख भोगे थे। किन्तु त्रिपृष्ट के भव मे तुम वासना में बह गये-हिंसा मे सन गये। उसी का दुखद परिणाम यह हिंसक पशुजीवन है। सुख चाहते
SR No.010164
Book TitleBhagavana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Parishad Publishing House Delhi
PublisherJain Parishad Publishing House Delhi
Publication Year1951
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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