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________________ ( २ह ) पशु-पर्याय मे उसने अहिंसा का व्रत ग्रहण करके मानों उसने जीव मात्र की रक्षा की, उनको अभय कराने का दृढ़ संकल्प किया था । उस संकल्प को वह महावीर के जीवन में पूर्ण कर सका था । सिंह का जीव स्वर्ग में हरिष्वज नामका देव हुआ था । धर्म का फल ऐश्वर्य होता देखकर वह धर्म-पुरुषार्थ में लीन हुआ । जिन चैत्यालयों की वह नित्य प्रति वन्दना करता । एक दिन उसे अपने गुरू मिल गये । वह विनीत हो बोला, "गुरुवर्य्य ! आपके धर्मोपदेश-प्रसाद को पाकर मैं कृत्कृत्य हुआ और स्वर्ग सुख भोग रहा हूं। मैं आपका उपकार और आपकी शिक्षा भूल नहीं सकता ।" गुरू ने “धर्मवृद्धि” रूप आशीर्वाद देकर उसकी श्रद्धा को और भी दृढ़ कर दिया । हरिध्वज देव, गुरु, शास्त्र की भक्ति में सुख अनुभव करता था । - उसका आत्मोत्कर्ष हुआ । आयु के अन्त में समभावों से उसने प्राण विसर्जन किये । वह कनकध्वज नामक विद्याधर नरेश हुये । राजत्व का सुख भोग कर वह सुमति स्वामी मुनिराज से दीक्षित हुये और तपश्चरण करके स्वर्ग में पहुँचे । देव पर्याय को धर्म का फल जानकर वह जिनेन्द्र भक्ति में लीन हुये । उन्हें विश्वास था कि "ठीक से छाये गये घर में जिस प्रकार वर्षा का जल नहीं घुसता, वैसे ही जिनेन्द्र भक्ति से श्रोत-प्रोत हृदय में पाप वृष्टि नहीं घुस पाती ।" इस श्रद्धा को लेकर वह आध्यात्मिक उन्नति में बढ़ता गया । स्वर्ग से आकर वह उज्जयनी नगरी में हरिषेण राजा हुआ ।
SR No.010164
Book TitleBhagavana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Parishad Publishing House Delhi
PublisherJain Parishad Publishing House Delhi
Publication Year1951
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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