SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 65
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समता-दर्शन : ग्राधुनिक परिप्रेक्ष्य में : विचारणा के घात-प्रतिघातों में टकराता रहता है । उसकी वृत्तियां चंचलता के उतारचढ़ावों में इतनी अस्थिर बनी रहती हैं कि सद् या असद् का उसे विवेक नहीं रहता । ग्राप जानते हैं कि मन की चंचलता, राग और द्वेष की वृत्तियों से चलायमान रहती है । राग इस छोर पर तो द्वेप उस छोर पर मन को इधर-उधर भटकाते हैं । इससे मनुष्य की दृष्टि विपम बनती है | राग वाला अपना और द्वेप वाला पराया । इस प्रकार जहां अपने और पराये का भेद बनता है वहां दृष्टिभेद रहेगा ही । ४१ महावीर ने इसी कारण भानव मन की चंचलता पर पहली चोट की, क्योंकि मन ही तो बन्धन र मुक्ति का मूल कारण होता है । चंचलता राग और द्वेष को हटाने से हटती है और चंचलता हटेगी तो विषमता हटेगी । विपम दृष्टि उत्पन्न होगी । हटने पर ही समदृष्टि सबसे पहले समदृष्टिपना आये, यह वांछनीय है । क्योंकि जो समदृष्टिसम्पन्न बन जायगा वह स्वयं तो समता पथ पर ग्रारूढ़ होगा ही, अपने सम्यक् संसर्ग से दूसरों को भी विपमता के चक्रव्यूह से बाहर निकालेगा । इस प्रयास का प्रभाव जितना व्यापक होगा उतना ही व्यक्ति एवं समाज का सभी क्षेत्रों में चलने वाला व्यवस्था क्रम सही दिशा की ओर अग्रसर होने लगेगा । श्रावकत्व एवं साधुत्व : समदृष्टि होना समता के लक्ष्य की और अंग्रसर होने का समारंभ मात्र है । फिर महावीर ने कठिन क्रियाशीलता का क्रम बनायां । समतामय दृष्टि के बाद समतामय चरण की पूर्ति के लिये दो स्तरों की रचना की गई । इसमें पहला स्तर रखा श्रावकत्व का । श्रावक के वारह ग्रस्णुव्रत बताये गये है जिनमें पहले के पांच मूल गुरण कहलाते है एवं शेप सात उत्तर गुरण । मूल गुरणों की रक्षा के निमित्त उत्तर गुणों का निर्धारण माना जाता है । मूल पांच व्रत हैं- अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं परिग्रह | अनुरक्षक सांत व्रत हैं - दिशा मर्यादा, उपभोग-परिभोगपरिमाण, अनर्थ त्याग, सामायिक, देशावकासिक, प्रतिपूर्ण पौपव एवं प्रतिथि- संविभाग व्रत | कहलाता है- वह श्रावक के जो पांच मूल व्रत हैं, ये ही साधु के पांच महाव्रत हैं । दोनों में अन्तर यह है कि जहां श्रावकं स्थूल हिंसा, झूठ, चोरी, परस्त्री गमन एवं असीमित परिग्रह का त्याग करता है, वहां साधु सम्पूर्ण रूप से हिंसा, झूठ, चोरी, मिथुन एवं परिग्रह का त्याग करता है । महावीर का मार्ग एक दृष्टि से निवृत्तिप्रधान मार्ग इसलिये कि उनकी शिक्षाएं मनुष्य को जड़ पदार्थों के व्यर्थ व्यामोह से ज्ञानमय प्रकाश में ले जाना चाहती है । निवृत्ति का विलोम है प्रवृत्ति से विस्मृत वनकर बाहर ही बाहर मृगतृष्णा के पीछे भटकते रहना । जहां यह भटकाव है, वहां स्वार्थ है, विकार है और विपमता है । समता की सीमा रेखा में लाने, बनाये रखने और आगे बढ़ाने के उद्देश्य से ही श्रावकत्व एवं माधुत्व की उच्चतर श्रेणियां निर्मित की गई । हटाकर चेतना के अर्थात् श्रान्तरिकता 1
SR No.010162
Book TitleBhagavana Mahavir Adhunik Sandarbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy