SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 66
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सामाजिक संदर्भ जानने की सार्थकता मानने में हैं और मानना तभी सफल बनता है जब उसके अनुसार प्राचरण किया जाय । विशिष्ट महत्त्व तो करने का ही है। प्राचरण ही जीवन को आगे बढ़ाता है-यह अवश्य है कि प्राचरण अन्धा न हो, विकृत न हो । विचार और प्राचार में समानता हो : दृष्टि जव सम होती है अर्थात् उसमें भेद नहीं होता, विकार नहीं होता और अपेक्षा नहीं होती, तव उसकी नजर में जो पाता है वह न तो राग या ढेप से कलुपित होता है और न स्वार्थाभाव से दूपित । यह निरपेक्ष दृष्टि स्वभाव से देखती है। विचार और आचार में समता का यही अर्थ है कि किसी समस्या पर सोचें अथवा किसी सिद्धान्त का कार्यान्वयन करें तो उस समय समदृष्टि एवं समभाव रहना चाहिये। इसका यह अर्थ नहीं कि सभी विचारों की एक ही लीक को मानें या एक ही लीक में भेड़वृत्ति से चलें। व्यक्ति के चिन्तन या कृतित्व के स्वातंत्र्य का लोप नहीं होना चाहिये । ऐसी स्वतन्त्रता तो सदा उन्मुक्त रहनी चाहिये । समदृष्टि एवं समभाव के साथ जब बड़े से बड़े समूह का चिन्तन या आचरण होगा तव समता का व्यापक रूप प्रस्फुटित होगा। इस स्थिति में सभी एक दूसरे के हित चिन्तन में निरत होंगे और कोई भी ममत्व या मूर्छा से ग्रस्त न होगा। निरपेक्ष चिन्तन का फल विचार समता में ही प्रकट होता है किन्तु जब उस चिन्तन के साथ दंभ, हठवाद अथवा यशलिप्सा जुड़ जाती है तब वह विचार संघर्ष का कारण बन जाता है। ऐसे संघर्प का निवारक है महावीर का अनेकान्तवाद या सापेक्षवाद का सिद्धान्त जिसका मन्तव्य है कि प्रत्येक विचार में कुछ न कुछ सत्यांश होता है । अपेक्षा से उस सत्यांश को समझकर, अंगों को जोड़कर पूर्ण सत्य से साक्षात्कार करने का यत्न किया जाना चाहिए। यह विचार समन्वय का मार्ग है। इससे प्रत्येक विचार की अच्छाई को ग्रहण करने का अवसर मिलता है। आचार समता के लिये पांचों मूल व्रत हैं। मनुष्य अपनी शक्ति के अनुसार इन व्रतों की आराधना में आगे बढ़ता रहे तो स्वार्थ-संघर्ष मिट सकता है, परिग्रह का मोह छोड़ें या घटायें पोर राग-द्वेप की वृत्तियों को हटायें तो हिंसा छूटेगी ही, चोरी और झूठ भी छूटेगा तथा काम-वासना की प्रबलता भी मिटेगी। सार रूप में महावीर की समताधारा विचारों और स्वार्थों के संघर्ष को मिटाने में सशक्त है, बशर्ते कि उस धारा में अवगाहन किया जाय । चतुविध संघ : समता का मूर्त रूप : महावीर ने इस समता-दर्शन को व्यावहारिक बनाने के लिये जिस चतुर्विध संघ की स्थापना की, उसकी आधारशिला भी इसी समता पर रखी गई। इस संघ में साचु साध्वी, श्रावक एवं श्राविका वर्ग का समावेश किया गया । साधना के स्तरों में अन्तर होने पर भी दिशा एक ही होने से श्रावक एवं साधु-वर्ग को एक साथ संघवद्ध किया गया। दूसरी ओर उन्होंने लिंग भेद भी नहीं किया-साध्वी और श्राविका को साधु एवं श्राविक वर्ग की श्रेणी में ही रखा । जाति भेद के तो महावीर मूलतः ही विरोधी थे । इस प्रकार
SR No.010162
Book TitleBhagavana Mahavir Adhunik Sandarbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy