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________________ जीवन, व्यक्तित्व और विचार नहीं, प्रवृत्तिवादी भी थे । उनकी जीवनधारा निवृत्ति और प्रवृत्ति के दो तटों के बीच में, बहती रही है । महावीर की प्रवृत्ति जनमंगल की थी, जन-जागरण की थी । अन्धकार में भटकती मानव प्रजा को शुद्ध सत्य की ज्योति का दर्शन कराना ही उनकी प्रवचन प्रवृत्ति का व्यवहार जगत् में मुख्योद्देश्य था । महावीर का धर्म : महावीर शरीर नहीं, आत्मा है । अतः उनका धर्म भी शरीराश्रित नहीं प्रात्माश्रित है । अनेक विकारी परतों के नीचे दवे हए अपने शुद्ध एवं परमचैतन्य की शोध ही महावीर की धर्भ साधना है। महावीर का धर्म जीवन विकास की एक वाह्य निरपेक्ष आध्यात्मिक प्रक्रिया है । अतः वह एक शुद्ध धर्म है, क्रियाकाण्ड नहीं। धर्म एक ही होता है, अनेक नहीं। अनेकत्व क्रियाकाण्ड पर आधारित होता है। चूंकि क्रियाकाण्ड देश, काल और व्यक्ति की वंदलती परिस्थितियों से सम्बन्ध रखता है । फलतः वह अशाश्वत होता है, जव कि धर्म एक शाश्वत सत्य है । वह नया-पुराना जैसा कुछ नहीं होता । . जैन दर्शन की भापा में धर्म और क्रियाकाण्ड के पार्थक्य को समझना हो तो उसे निश्चय और व्यवहार के रूप में समझा जा सकता है। निश्चय आन्तरिक चेतनाश्रित एक शुद्ध भाव है, अतः वह सर्वदा एक ही होता है। व्यवहार, चूंकि देहाश्रित होता है, अर्थात वाह्याश्रित अतः वह कभी एक हो ही नहीं सकता। वह आरोपित है, फलतः वह बदलता रहा है, वदलता रहेगा । महावीर इसीलिए शुद्ध और शुभ की बात करते हैं । शुद्ध में भव वन्धन से मुक्ति है, जवकि शुभ में वन्धत्त से मुक्ति नहीं वन्धन में परिवर्तन है । अशुभ से शुभ में बदलाव । इस प्रकार महावीर अमुक सीमा तक क्रिया काण्ड रूप शुभ की स्थापना करके भी वहां रुकते नहीं हैं। आगे बढ़ने की वात करते हैं, जिसका अर्थ है संप्रदायसापेक्ष क्रिया काण्डों से परे पहुंच कर शुद्ध, निर्विकल्प, निरपेक्ष धर्मतत्त्व में प्रवेश करना । यही कारण है कि महावीर ने स्थविरकल्पी है और न जिनकल्पी । वे तो जैन दर्शन की आगमिक भाषा में कल्पातीत है, अर्थात् साम्प्रदायिक पंथों के सभी कल्पों से क्रियाकाण्डों से मुक्त सहज शुद्ध स्वभावकल्पी । महावीर का पुरुषार्थवाद : ... महावीर ने मानव जाति को पुरुषार्थ प्रधान कर्म दृष्टि दी । उनका कर्मवाद भाग्यवाद नही है, अपितु भाग्य का निर्माता है। उन्होंने कहा-मानव किसी प्रकृति या ईश्वरीय शक्ति के हाथ का कोई बेबस लाचार खिलौना नहीं है। वह कठपुतली नहीं है कि जिसके जी में जैसा आए, वंसा उसे नचाए । वह अपने भाग्य का स्वयं स्वतन्त्र विवाता है। वह जैसा भी चाहे अच्छा बुरा अपने को बना सकता है। अपना निर्माण अपने हाथ में है और वह हो सकता है अपने सर्वतोभद्र शुभ्र चरित्र के द्वारा । महावीर का कर्मसिद्धान्त मानव की कोई विवशता नहीं है । वास्तव में वह महान पुरुपार्थ है, जो मानव को अन्धकार से प्रकाश की ओर, कदाचार से सदाचार की ओर सतत गतिशील होने की नैतिक प्रेरणा देता है । वह मानव को अन्दर से उभार कर ऊपर लाता है, उसे नर से नारायण बनाता है । कर्मठ मानव के श्रमशील हाथों में ही स्वर्ग और मोक्ष खेलते हैं । स्वर्ग और मोक्ष भिक्षा की चीज
SR No.010162
Book TitleBhagavana Mahavir Adhunik Sandarbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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