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________________ ज्योति पुरुष महावीर नहीं है कि कहीं किसी से उन्हें मांग लिया जाए। महावीर के शब्दों में कोई भी श्री, चाहे वह भौतिक हो या आध्यात्मिक, सदा अर्जित ही होती है कृत ही होती है, दत्त या कारित नहीं। महावीर का सत्य अनन्त है : महावीर का सत्य अनन्त है । वह किसी एक व्यक्ति, जाति, राष्ट्र, पन्थ या सम्प्रदाय विशेष में आवद्ध नहीं है । उसे किसी एक सीमित या परिवद्ध दृष्टि से समझ पाना कठिन है। भला जो अनन्त है, वह शब्दों की क्षुद्र परिधि में कैसे समाहित हो सकता है । आकाश अनन्त है । वह घटाकाश के रूप में प्रतिभासित एवं प्रचारित होकर भी घट में ही सीमित नहीं है । यही बात सत्य के सम्बन्ध में भी है। तत्वदर्शी महापुरुषों की चेतना में वह झलका तो है पूर्ण ही, परन्तु वाणी पर उसका कुछ अंश ही मुखरित हो सकता है, जिसे हम शास्त्रों के नाम से ग्रन्थों में तलाशा करते हैं। सम्पूर्ण रूप से सत्य किसी एक व्यक्ति से कभी व्यक्त नहीं हुआ है, और न कभी होगा । वह जब भी प्रकट होता है, अंशतः ही प्रकट होता है । आज तक के संख्यातीत तीर्थंकर और अन्य ज्ञानी सत्य के अनन्त सागर में से एक बूद भी पूरी तरह नहीं कह पाये हैं। महावीर के अनेकान्त दर्शन का बीज इसी तत्व दृष्टि में है । अनेकान्त कहता है, आपका सत्य तभी सत्य है, जब आप उसे अनाग्रह बुद्धि से 'भी' के साथ प्रयोग करते हैं । जहां उसके साथ अाग्रह का 'ही' लगा कि वह अमत्य हो गया। अपूर्ण अंश पूर्ण अंशी होने का दावा करने लगे तो वह झूठा ही होगा सच्चा नहीं । अतः अपने विरोधी समाज, परम्परा या व्यक्ति के दृष्टिबिन्दु को भी उसके अपने उचित धरातल पर समझो, उसका आदर करो, और उदारता के साथ अनाग्रह भाव से उसे उसकी यथोचित सीमा में स्वीकार भी करो। महावीर का यह तत्व दर्शन समन्वय का दर्शन है, जो एक दूसरे को आपस में जोड़ता है, विरोधी जैसे लगते हुए विभिन्न विचारों को एक धारा का रूप देता है, उन्हें एक प्राप्तव्य लक्ष्य की ओर गतिशील करता है । विभिन्न घारागों में बहती हुई सरिताएं आखिर जाती कहां हैं ? सागर में हो तो जाती है न । महावीर की अहिंसा मैत्री है : . महावीर ने अहिंसा की परिधि को विस्तार दिया। वह अमुक प्राणि-विशेप तक ही नहीं, प्राणिमात्र के लिए प्रवाहित की गई। महावीर की अहिंसा ने समाज, राष्ट्र धर्म पत्य और व्यक्ति के अपने पराये कहे जाने वाले भेदों को तोड़ा। 'सर्वत्र समदर्शनम्' का अद्वती शंख बज उठा । तू मैं एक और तेरा मेरा सव एक, यह है महावीर के अहिंसा धर्म का मर्म । यहां जो भी है, अपना है पराया कोई है ही नहीं। इसी सन्दर्भ में महावीर ने कहा था-'सव्वभूयप्पभूयस्य"पावकम्मं न वन्धई'। महावीर की दृष्टि में किसी प्राणी की हत्या ही मात्र हिंसा नहीं है : उन्होंने हर शोपण, हर उत्पीड़न, हर अवघोरण को भी हिंसा माना है । वे एकान्तलश्री वैचारिक आग्रह को भी हिंसा की कोटि में गिनते हैं । तन की हिंसा ही नहीं, मन की भी हिंसा होती है। और यह मन की हिंसा तन की हिंसा से अधिक भयंकर होती है। संक्षेप में हिंसा के
SR No.010162
Book TitleBhagavana Mahavir Adhunik Sandarbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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