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________________ ज्योतिपुरुष महावीर किन्तु इन सबके बीच महावीर प्रारम्भ से ही कुछ ऐसे जल कमलवत् निर्लिप्त एवं निःस्पृह रहते आ रहे थे कि वे भोग में भी एक तरह से योग ही सावते रहे थे । दर्शन की भाषा में तव वे गृह योगी थे । भोग की निरन्तर क्षीण होती जाती वृत्तियां एक ऐसे विन्दु पर पहुंची कि मंगसिर कृष्णा दशमी के दिन वे समग्र सांसारिक सम्बन्धों से मुक्त होकर सर्वथा अकिंचन श्रमण वन गए । भौतिक आकांक्षात्रों का कोई भी भववन्धन उस विराट ग्रात्मा को वांच नहीं सका । भला कमल की नाल से बंधा गजराज कव तक बन्धन में रुका रह सकता है ? 'बद्धोहि नलिनी नालैः कियत् तिष्ठति कुंजरः' । १७ श्रमण जीवन की सर्वोत्कृष्ट चर्या स्वीकार कर महावीर एकान्त श्रात्मसाधना करने में लीन हो गए। जहां हर क्षण मौत नाचती रहती है, ऐसे हिंस्र पशुत्रों से भरे निर्जन वनों में, गगनचुम्बी पर्वतों की गहरी अंधेरी गुफात्रों में, नागिन की भांति फुंकार मारती वेगवती जल धाराओं के एकान्त तटों पर महावीर ध्यान मुद्रा में ऐसे खड़े रहते, जैसे कोई जीवित जागृत गिरिशिखर ही खड़ा हो । तन-मन दोनों से मौन । सर्वथा अटल अविचल । संसार के स्पन्दनशील धरातल से बहुत ऊपर । केला, अद्वितीय । महावीर का संयम वाहर से आरोपित नहीं था वह अन्तर से जागृत हुआ था, ज्ञान ज्योति के निर्मल प्रकाश में । अतः महावीर की योग साधना सहज थी । वह की नहीं जा रही थी, हो रही थी । इसलिए प्रारणान्तक कष्टों के भयंकर कहे जाने वाले संत्रास भी उनको अपने पथ से विचलित नहीं कर सके और न राग-रंग से भरे मोहक पर्यावरण में ही वे उलझ पाए । अनुकूल और प्रतिकूल दोनों ही स्थितियों के तूफानी दौर में महावीर निष्प्रकंप दीपशाखा की भांति अनवरत आत्मलीनता में प्रज्वलित होते रहे । 'स्व' के साथ 'पर' की और 'पर' के साथ 'स्व' की साधना के मंगल सूत्र खोजने में उन्होंने अपने को सर्वात्मना समर्पित कर दिया था, उन दिनों । सव र से विस्मृत । एक मात्र स्मृति उस सत्य की, जिसे पाने के बाद फिर और कुछ पाना शेप नहीं रह जाता है । यह सत्य श्रुत सत्य नहीं था जो कभी गुरु से या किसी ग्रन्थ से मिलता है | श्रुत सत्य परोक्ष ही रहता है, वह कभी प्रत्यक्ष नहीं होता । महावीर को तलाश थी उस प्रत्यक्ष सत्य की, जो स्वयं की अनुभूति के द्वारा अन्दर में से जागृत होता है । जो एक वार उपलब्ध हो जाने के बाद फिर न कभी नष्ट होता है, न धूमिल होता है । वह अक्षय, अजर, अमर, अनन्त सत्य दर्शन की भाषा में केवल ज्ञान, केवल दर्शन कहलाता है | सत्य का निरावरण बोध ही तो कैवल्य है । और वह पाया साढ़े बारह वर्ष की सुदीर्घ तप और ध्यान की निष्कलुप साधना के फलस्वरूप महावीर ने । लोकमंगल के लिए धर्मदेशना : कैवल्य बोध के अनन्तर महावीर अपने साक्षात्कृत सत्य का बोध देने हेतु एकान्त निर्जन वनों से पुनः जनता में लौट आए । वैयक्तिक प्राप्ति या सिद्धि, जैसी कोई बात अब शेष नहीं रही थी । अतः अव प्रश्न व्यष्टि का नहीं, समिष्ट का था । कृत कृत्य होकर भी लोकमंगल, के लिए धर्मदेशना की महावीर ने । बताया है गणधर सुधर्मा ने अपने महान शिष्य श्रार्य ज़म्बू को, महावीर के प्रवचनोपदेश का हेतु - 'सव्व जगजीव रखरणदयट्ठयाए भगवया पावयणं, सुकहियं' फलित होता है इस पर से कि महावीर एकान्त निवृत्तिवादी ही
SR No.010162
Book TitleBhagavana Mahavir Adhunik Sandarbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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