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________________ २२४ मनोवैज्ञानिक संदर्भ स्वरूप का निरूपण करने से पूर्व कहा-'अरिहंत हैं, चक्रवर्ती हैं, वलदेव हैं, वासुदेव हैं। सर्वोच्च लोकोत्तर पुरुप अर्हत् और सर्वोच्च लौकिक पुरुप चक्रवर्ती, बलदेव और वसुदेव का अस्तित्व मानने पर सत्कर्मों की सफलता विदित होती है और मानव के भव्य तथा उच्च स्वरूप में आस्था होने से जीवन में उत्साह और शुभ कार्यों में विशेष भाव उत्पन्न होता है। (उ) परलोक - अस्तित्व-परलोक के अस्तित्व के विपय में अतीत में भी चार्वाक दर्शन से प्रेरित व्यक्ति शंकाशील रहे हैं। आज भी कई मनीपी परलोक के अस्तित्व को नहीं मानते हैं । सामान्य जीवों में भी इस विषय में अपना विशिष्ट निर्णय नहीं होता है। परलोक में अनास्था से अनेक प्रश्नों का सही समाधान नहीं हो सकता है और शुभ भावना में गहराई नहीं आ सकती है। भगवान् ने जो देखा उसे स्पष्ट रूप से यों कहा-'नरक हैं, नैरयिक हैं, तिर्यन्च हैं, तिर्यन्वनियां हैं,......"देव हैं, देवलोक हैं । अर्थात् मनुष्येत्तर जीवों का अस्तित्व है और उनके निवास स्थान भी हैं। एक-दूसरी योनि में जीवों का जन्म भी होता है। (ऊ) सम्बन्ध-अस्तित्व-जब उपदेशक सम्बन्धों को माया जाल, सपने की माया मिथ्या आदि कहते हैं, तव उनका उद्देश्य सम्बन्धों के अस्तित्व का निषेध करने का नहीं होता है । यदि सचमुच में व्यवहार-दृष्टि से भी सम्बन्धों के अस्तित्व की धज्जियां उड़ादी जाती हैं। तो कई व्यावहारिक, सामाजिक और नैतिक समस्याएं उत्पन्न हो जाती हैं। फ्रायड के सैक्स विश्लेपण को आज की चेतना ने गलत रूप में लिया है, जिससे माता, पिता, भाई, बहिन, पति, पत्नी आदि के सम्बन्धों का पवित्रांश विनष्ट-सा हो रहा है। आज का सभ्य मानव ऐसी स्थिति में पहुंचता हुआ प्रतीत हो रहा है कि जहां सैक्स के नर-नारी रूप दो केन्द्रों को छोड़कर सभी सम्बन्ध विलुप्त हो जाते हैं । परन्तु सम्बन्धों की भावना कल्पना में होते हुए भी—'उनका अस्तित्व विलकुल नहीं है, यह नहीं कहा जा सकता है। क्योंकि उन सम्बन्धों की भावना का भी कुछ न कुछ वाह्य आधार है ही और भावनाओं का अस्तित्व भी तो अस्तित्व ही है न ! अतः जो है, उसका उस काल में अस्तित्व नहीं मानने से अनेकानेक समस्याएं उत्पन्न हो जाती हैं । आज माता-पिता को उजड़ता से ऐसे कहते हुए पुत्र मिल जायेंगे कि 'आपने हमें जन्म देकर, हमारे लिए क्या उपकार किया ? आपने अपने जीवन का आनन्द लेना चाहा और वीच में अनिवार्य रूप से हम आ टपके' । परन्तु इन सम्बन्धों के निर्मलता के अंश की कई दृष्टियों से रक्षा करना योग्य है। अतः भगवान् ने कहा है 'माता है, पिता है.......'२ नैतिकता की सुदृढ़ता के लिए सम्बन्ध मान्य होने चाहिये । मनि - अस्तित्व-आज त्याग के प्रति अरुचि पैदा होती जा रही है और मनुष्यों के एक वर्ग में त्याग को प्रदर्शन, ढोंग आदि समझने-समझाने की वृत्ति पैदा हो रही है। श्रावनिक शिक्षा और सुख-सुविधा के साधनों की बहुलता ने मनुष्य की कप्ट-सहिष्णुता १. उववाइय सुत्त ३४ । २. वही ।
SR No.010162
Book TitleBhagavana Mahavir Adhunik Sandarbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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