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________________ भगवान् महावीर की वे बातें जो आज भी उपयोगी हैं २२५ को नष्ट कर दिया है। अतः आधुनिक शिक्षित मानस, नूतन शृगार-सज्जा में लिप्त मानस, वीतराग प्रभु के द्वारा उपदिष्ट परम त्याग से · मण्डित मुनित्व के लिए-परम वैराग्य बीज के लिए, अनुर्वर बंजर भूमि-सा हो गया है । दूसरी ओर मानव का अभिमानी मन अपनी दुर्वलता को स्वीकार करना भी नहीं चाहता है । ऐसी मनोवृत्ति से साधुत्व के प्रति ही : अविश्वास होने लगता है। वह कहता है-'कोई साधु हो ही नहीं सकता, "साधुवावाओं का युग लद गया,' 'साधुत्व जीवन से पलायन हैं,' 'विज्ञान के युग में साधु बनना वृथा है,' 'साधुता तो मन में होनी चाहिए,' "साधु का वाना लेना ढोंग है, आदि । इस प्रकार मुनित्व-निषेध का स्वर दिन-प्रतिदिन मुखर होता जा रहा है। यह सत्य है, कि मुनित्व के नाम पर ढोग भी चलता है । परन्तु सच्चे साधु हैं ही नहीं ऐसा नहीं है और मुनियों का न होना संघ, समाज या व्यक्ति किसी के भी लिए हितकर नहीं है । मुनि के अस्तित्व को मिटाने से सत्य-साधकों की परम्परा और उदात्त भावों के संरक्षक नष्ट हो जाते हैं और मुनीत्व को नकारने से व्यक्ति सत्य दर्शन की साधना की उपलब्धि से वंचित हो जाता है। अतः भगवान् ने कहा-'ऋपि हैं.१ सत्य के साधक और दृष्टा मुनियों का अस्तित्व मानकर ही उनसे लाभान्वित हो सकता है । (ए) शुद्ध चैतन्य - अस्तित्व-परमात्मा-सत्ता से इंकार करना भी आज की एक विशेपता है । वस्तुतः जीवन के चरम और परम लक्ष्य के विषय में, जन सामान्य न तो कुछ विचार ही करता है, न निर्णय ही लेता है और न कुछ विश्वासी ही है। परन्तु परमात्म-सत्ता से इंकार करने से और उसे अपने चरम लक्ष्य के रूप में स्वीकार न करने से शुद्ध चारित्र्य भी निष्फल हो जाता है । भगवान् महावीर ने मानव मन की इस विवेकशून्यता को दूर करने के लिए कहा-'सिद्धि है, सिद्ध है, परिनिर्वाण है, परिनिवृत्ति है....२ समस्त ज्ञान-विज्ञान और चारित्र की व्यवस्थित सिद्धि के लिए शुद्ध चैतन्य में आस्था आवश्यक है । (ऐ) धर्म - अधर्म - अस्तित्व-जितनी निम्नतम वृत्तियां यथार्थ हैं, उतनी ही उच्चतम वृत्तियां भी यथार्थ हैं । एक को यथार्थ मानकर, दूसरी को अयथार्थ मानना योग्य नहीं है। अशुभ को -- अशिव को यथार्थ मानकर, उसका अस्तित्व जीवन में स्वीकार करना और शुभ को - शिव को अयथार्थ मानकर जीवन में उसके अस्तित्व को स्वीकार नहीं करना, चिर काल-स्थायी दुःख को आमंत्रण देना . और जीवन में भाव-वैभव के प्रकट होने के मार्ग को अवरुद्ध करना है। अशुभ को अशुभरूप में और शुभ को शुभ रूप में मानने पर ही अशुभ से निवृत्त होकर, शुभ में प्रवृत्त होने की इच्छा होती है। भगवान् ने इस तथ्य को उजागर करने के लिए कहा है-'प्राणातिपातहै, मृपावाद है, अदत्तादान है, मैयुन है, परिग्रह है, क्रोव है "मिथ्यादर्शन - शल्य है और प्राणातिपात विरमण है, मृपावाद विरमण है"क्रोव विवेक है" मिथ्या दर्शन शल्य-विवेक है।' १. उववाइय० ३४॥ २. वही। ३. वही।
SR No.010162
Book TitleBhagavana Mahavir Adhunik Sandarbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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