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________________ भगवान् महावीर की वे बातें जो आज भी उपयोगी हैं २२३ (आ) जीवाजीव-अस्तित्व-वैज्ञानिक अन्वेषणों के आधार से, आज कई जन जीव के अस्तित्व से इन्कार करते हैं और कई तथाकथित शुद्ध दार्शनिक अजीव का अस्तित्व नहीं मानते हैं । परन्तु भगवान् के तत्व दर्शन के अनुसार, जीवाजीव के अस्तित्व को नहीं मानने से अनास्था का स्वर मुखर होता है और अहिंसा, सत्य आदि की जीवन में अनावश्यकता और विपय-भोगों की सारता प्रतीत होती है । फिर मनुष्य आपा-धापी में डूब जाता है । अतः भगवान् ने इन भावनाओं के प्रतिकार के लिए कहा है-'जीव हैं और अजीव हैं। जीव और अजीव के अस्तित्व को मानकर ही अनास्था को निर्मूल किया जा सकता है । जीव-अजीव के अस्तित्व की श्रद्धा से ही सच्चे आत्मविश्वास का जन्म होता है और प्रात्म-विकास में रुचि उत्पन्न होती है । (इ) प्रात्म-हीनता और उच्चता का अस्तित्व-यात्मा में मलिनता भी है और उच्चता भी । आत्मा हीन प्रवृत्ति भी है और उच्च प्रवृत्ति भी। अात्मा बद्ध भी है और मुक्त भी हो सकती है। आज बंध, मोक्ष, पुण्य, पाप आदि को निरी कल्पना ही कहा और माना जाने लगा है । जो अपने आपको दर्शनशास्त्र-वेत्ता मानते हैं, वे भी दर्शन के तत्वों के इतिहास लिखने के बहाने इन तत्वों को किन्हीं कल्पनाओं से प्रसूत या विकसित हुया बतलाते हैं। परन्तु ऐसा मानने से अनास्था की ही वृद्धि होती है । इन तत्वों को नकारने से----- बंध, मोक्ष, पुण्य, पाप, निर्जरादि तत्वों की अनास्था से-सामाजिक या नैतिक अपराधों की सृष्टि होती है और आत्मा पतन के गर्त में गिर पड़ती है । इसी लिए भगवान ने कहा है-'बन्ध (=जीव और पुद्गल का नीर-क्षीरवत् सम्बन्ध) है, मोक्ष (=समस्त कर्मो से रहित शुद्ध व चैतन्य अवस्था) है, पुण्य है, पाप है, आस्रव (ग्रात्मा में कर्म के प्रवेश द्वार रूप भाव) है, संवर ( आत्मा में प्रविष्ट होने वाले कर्मो को रोकने वाले यात्मपरिणाम) है, वेदना (=कर्म फल का भोग) है और निर्जरा (=कर्मों को आत्मा से दूर करने वाले प्रात्मपरिणाम) है। वस्तुतः इन तत्वों के प्रतिपादन से भगवान् ने आत्मा के वद्ध और मुक्त स्वरूप का, सांसारिक सुख-दुःख के हेतुओं का, यात्मा में सुख-दुःख के हेतु रूप कर्मों के प्रवेश के कारणों का, उनको रोकने के उपायों का, कर्मो के भोगने का और कर्मों के क्षय करने के उपायों का वर्णन करके, आत्मा का साधना के योग्य समस्त परिचय दे दिया है, जिससे मनुष्य की अपने विषय में जानने की जिज्ञासा आज भी तृप्त हो सकती है। (ई) मानव-विकास के स्तर-याज मानव की शक्तियों और उसके विकास के स्तर एवं स्वरूप को, यथार्थता के नाम पर बहुत ही बौना करके देखा जाता है। अपने स्वरूप को हीन रूप में देखने से मानव में उदात्त भावों के उत्कर्ष का अभाव हो जाता है और जीवन में नीरसता आ जाती है, जो ऊब और कुण्ठा के रूप में व्यक्त होती है। भगवान् महावीर ने मानव-मन की हीनता का प्रक्षालन करने के लिए, उसके बाह्यआभ्यन्तर विकास के सर्वोच्च शिखर रूप व्यक्तियों को अपनी दिव्य दृष्टि से देखकर, उनके ८" ' हा 1. उववाइय सुत्त ३४ । २. उववाइय सुत्त ३४ ।
SR No.010162
Book TitleBhagavana Mahavir Adhunik Sandarbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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