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________________ ၁၃၃ मनोवैज्ञानिक संदर्भ आत्मशुद्धि के हेतुओं से लगाव नहीं होना, सत्संकल्प की हीनता), (३) प्रमाद (=आत्ममलिनता के हेतुओं से असावधान रहना, वैपयिक प्रवृत्ति आदि), (४) कपाय (=ग्रावेशों के वशीभूत होना) और (५) योग (=मन, वचन और काया की क्रिया पर नियन्त्रण नहीं रखना या क्रिया को नहीं रोकना और क्रिया का विस्तार करना)।' यदि हम गहराई से विचार करें तो हमें विदित होगा कि प्रायः आधुनिकतम मानव अाज इन पांचों कारणों के पुनः पुनः सेवन में ही जीवन की यथार्थता, सार्थकता, कृतार्थता और प्रगतिशीलता समझता है । ग्रन्थियों से मुक्त होने की प्रक्रिया : यह भगवान् महावीर देव की वाणी के माध्यम से आज के युग की विकृतियों का निदान और विकृतियों के कारणों का विश्लेषण हुा । अव विकृतियों और विकृतियों के कारण निवारण करने के उपायों के विषय में विचार करना है। वस्तुतः विकृतियों के कारणों का अभाव होने पर विकृतियां स्वतः ही समाप्त हो जाती हैं। अतः विकृतियों के कारणों को हटाने के उपायों का विचार करना योग्य है। मिथ्यात्व (=अतत्व में राग और तत्व में द्वाप) से आस्था, प्रतीति और रुचि में विकृति पैदा होती है। अतः आस्था आदि की शुद्धि के विषय में विचार किया जाता है। प्रास्था की दृढ़ता : भगवान महावीर ने जीवन की निर्मलता के लिए समझ की शुद्धि और बुद्धि की स्थिरता को प्राथमिकता दी है । भगवान् अपने उपदेशों में पहले इसी बात की प्रेरणा देते और क्रम से उनके उपायों का प्रतिपादन करते थे। उस प्रेरणा और उपायों की पद्धति को 'अस्तित्ववाद' कहा जा सकता है। हम उस पद्धति का अाज परिवेश में विचार करते हैं (अ) लोक-अस्तित्व-लोक और अलोक के अस्तित्व के विपय में अतीत में भी अनेक विभ्रम रहे हैं और आज भी हैं । लोक-सत्ता को स्वीकार नहीं करने पर मिथ्या भाव की ग्रन्थि पड़ जाती है और मिथ्या भाव समस्त विकृतियों का मूल कारण है। अतः उस मिथ्याभाव के निवारण के लिए, लोक-अलोक के अस्तित्व को स्वीकार करना चाहिए। भगवान महावीर ने स्पष्ट शब्दों में कहा है-'अत्थि लोए, अत्थि अलोए' अर्थात् लोक है और अलोक भी है। भगवान् ने जिस रूप में लोक-स्वरूप का वर्णन किया है और जिन तत्वों का निरूपण किया है, उससे आधुनिक विज्ञान भी सम्मत होता जा रहा है । भगवान् ने पड्द्रव्यात्मक लोक और आकाश मात्र अलोक का वर्णन किया है । 3 १. तत्वार्थ सूत्र ८।१, ठाण ५। २. उववाइय सुत्त ३४ । ३. भगवई २।१०।
SR No.010162
Book TitleBhagavana Mahavir Adhunik Sandarbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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