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________________ श्राधुनिक दार्शनिक धारणाएं और महावीर था, लेकिन इन दोनों ने उसकी लेश्या को अपनी तेजोलेश्या से समाप्त कर दिया था । बुद्ध र वौद्ध संघ का प्रभाव मगध और काशी जनपद के राजकुल पर था और उस राज्य प्रभाव के कारण उनके संघ का प्रभाव एवं प्रचार-प्रसार अधिक हुआ था, लेकिन राज्य प्रभाव से हीन जैन संघ का प्रसार जनता के बीच स्वाभाविक रूप से होता था । जिस प्रकार बुद्ध के साथ ग्रानन्द थे और उन्हें ही सम्बोधित करके बुद्ध प्रायः अधिकांश विशिष्ट उपदेश देते थे, उसी प्रकार महावीर के साथ गौतम थे और वही प्रायः अधिक गूढ़ प्रश्न करते थे श्रीर उन प्रश्नों का उत्तर महावीर गौतम को सम्बोधित करके दिया करते थे । १७५ जैनागमों के साक्ष्य में कहा जा सकता है कि महावीर के जीवन का अधिकांश समय जनता की कल्याण की कामना से जनता के बीच ही बीता था जवकि बुद्ध का समय जनता और राजकुल के बीच वंटा हुआ था । वे राजकुल में-राजा, राज्याधिकारी, सैनिक एवं राजपुरुषों के बीच ऐसे समाविष्ट हो गए थे कि वहुत से राज्याधिकारी, मैनिक एवं दूसरे राजपुरुप, संघ के राजभोग्य सुखों की ओर ग्राकृष्ट होकर भिक्षुक होते जा रहे थे और मगधराज को बुद्ध से इसकी शिकायत करनी पड़ी थी । जिसके बाद भिक्षुक वनने के लिए माता, पिता, पत्नी, ग्रभिभावक तथा अधिकारी पुरुष की स्वीकृति लेनी पड़ती थी । लेकिन ऐसी अवस्था जैन संघ में नहीं थी । जैनसंघ का सारा संघटन वज्जियों के संघशासन के अनुरूप होता था जबकि बौद्ध संघ का निर्माण संघ और राज्य दोनों के बीच का होता था । महावीर का दर्शन : जैन तीर्थंकर महावीर के उपदेश पंच महा-श्रव्रत पर ग्राधारित थे । ये पंचारगुव्रत है : - हिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, और अपरिग्रह | ये ही पांच महाव्रत वौद्धागमों में पंचशील और वैदिक परम्परा में 'यम' के नाम से जाने जाते हैं। मानव जीवन के कल्याण के लिए इन व्रतों या शीलों को अनिवार्य माना जाता है, दूसरे सभी श्रावश्यक नियमों में परिवर्तन हो सकता है, उनका त्याग किया जा सकता है किन्तु इनमें परिवर्तन या इनका त्याग नहीं किया जा सकता है। जैनागमों में इन मूलभूत ग्राचारों पर अत्यन्त ध्यान दिया जाता है | यह ग्रावारशिला है । इनके विना जैन-धर्म की सत्ता की कल्पना ही नहीं की जा सकती है । ये श्रावकों और अनगारों, दोनों के लिए व्रत महाव्रत के रूप में अनिवार्य हैं। यों तो इन पांचों पर निर्विशेष रूप से बल दिया जाता है, लेकिन अहिंसा की जो विस्तृत व्याख्या जैन धर्म ने प्रस्तुत की है और जितना इस पर बल दिया है, उतना किसी दूसरे धर्म ने नहीं दिया है । इस व्याख्या - क्रम में स्थूलतम हिंसा से सूक्ष्मतम हिंसा तक का निषेध कर के ग्रहिंसा का परम एकान्तनिष्ठ सिद्धान्त स्थापित किया गया है। हिंसा की व्याख्या प्रस्तुत करते हुए कहा गया है कि रागादि कपायों के कारण मन, वचन, काय से द्रव्यरूप में या भावरूप में जो प्राणियों का घात किया जाता है, वहीं हिंसा है। : यत्खलु कपाय योगात् प्ररणानां द्रव्यभाव रूपाणाम् । व्ययरोपणस्य कारणं सुनिश्चिता सा भवति हिंसा ||
SR No.010162
Book TitleBhagavana Mahavir Adhunik Sandarbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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