SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 200
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७६ दार्शनिक संदर्भ और आत्मा में रागादि कपायों का न होना ही अहिंसा है तथा रागादि भावों का उत्पन्न होना ही हिंसा है, यह सम्पूर्ण जैनागम का तत्त्वसार है : अप्रादुर्भाव खलु रागादीनां भवत्यहिसेति । तेपा मेवोत्पत्तिः हिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः ।। इतनी सूक्ष्म व्याख्या के द्वारा हिंसा-अहिंसा की व्याख्या प्रस्तुत की गई है । जैन-धर्म चारित्र प्रकरण में अहिंसा को परमोच्चस्थान प्रदान करता है तथा मोक्ष के कारणभूत सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र के समुदाय में चारित्र में अहिंमा को प्रथम माना गया है और चारित्र के सम्यकत्व में अहिंसा को मूल मानकर वन्ध कारणभूत सभी प्रास्रवों के संवरण द्वारा निर्जरा प्राप्त व्यक्ति को मोक्ष-प्राप्ति का उपदेश दिया गया है। आधुनिक दार्शनिक धारणाएँ और महावीर : जैन-धर्म की इस अहिंसा से प्रेरित होकर आज के महान् उपदेष्टा महात्मा गांधी ने अहिंसा को अपने सिद्धान्त का मूल मन्त्र मानकर, उसे अपने राजनीतिक संघर्ष में दार्शनिक आधारशिला के रूप में स्थापित किया था, तथा उसे व्यावहारिक जामा पहनाकर अपना संघर्ष चलाया था। ___अहिंसा को आज के वैज्ञानिक युग में जैन-धर्म की सर्व प्रथम मान्यता का कारण माना जा सकता है तथा आज के भौतिक जगत् को एक बड़ी देन मानी जा सकती है। भगवान महावीर के चरित्राध्यायी जनों को ज्ञात हो है कि वे अपने तपस्याकाल से मुक्ति पर्यन्त अहिंसा के कितने बड़े साधक थे। उन्होंने अहिंसा को परमोच्च स्थान दिया था तथा व्यवहार में कीट-पतंगों से आक्रांत होकर भी उसे हटाने तक का प्रयास नहीं किया था, क्योंकि उस अपसारण में रागादि का भाव शरीर के प्रति कश्मल कपाय के आविर्भाव का भाव बना हुआ था। सम्यग्दर्शन, सम्यज्ञान प्रकरण में जो कुछ भी ज्ञान प्रस्तुत किया गया है वह और उसकी जो दार्शनिक व्याख्या उपस्थित की गई है, वह आज के वैज्ञानिक युग में भी शत-प्रतिशत सही उतरती है । जैनागम में द्रव्य का सही लक्षण यही है कि वह उत्पाद, नाश और ध्र वता से युक्त सत्तात्मक हो । द्रव्य का उत्पन्न होना, नाश होना तथा अपनी सीमा स्थिति में ध्रुव (स्थितिमान्) रहकर अपनी सत्ता बनाये रखना ही उसको सत्ता का मूलस्वरूप है, "उत्पाद व्यय प्रोव्ययुक्त सत द्रव्यम्" (तत्त्वार्थ सू०-५-२६-३०) । द्रव्य की यह व्याख्या 'भगवती सूत्र' से लेकर अद्यपर्यन्त की गई है । द्रव्य की इस उत्पत्ति, विनाश और स्थिति के सिद्धान्त को आज भी वैज्ञानिक स्वीकार करते हैं। यही वात गीता में इस प्रकार कही गयी है। नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः। उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयो स्तत्त्व दशिमिः ॥
SR No.010162
Book TitleBhagavana Mahavir Adhunik Sandarbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy