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________________ निवेदन करने लगा - "स्वामिन् । श्रापकी प्रशसा मैंने बहुत सुन ली है मुझे अपना 1 दास स्वीकार कीजिये ( ६६ ) " आपका परिचय ? भरत महाराज ने मन्द और प्रिय के साथ पूछा "मैं इस विजयार्ध पर्वत का रक्षक - व्यन्तर देव ह ।" "ऐसी क्या विशेषता है इस पर्वत मे ? "स्वामिन | यह पर्वत राज रत्नो का, मणियो का, खजाना है। इसकी विशाल गुफाओ मे विशाल विपुल मात्रा मे धनराशि है। इसकी और अन्य गुफाओ मे शहर के शहर बसे हुये है । एक और रमणीक व विशाल गुफायें है जिसका द्वार विगत श्रनेको युगो से चन्द पडा है उसमें जिन मन्दिर, विशाल राज भवन, विशाल रमणीक उपवन है । ' 'वह गुफा बन्द क्यों है 'इसका तो मुझे मालूम नही । पर यह धनन्त काल से चन्द है । किसी ने भी इसे नही खोला ।' 'क्यो नही खोला ?" मुस्कान 'यह तो हिम्मत का काम हे महाराज | कोन ऐसा वीर है, पुण्यात्मा है, वीर है जो इमे सोले । यह तो मुझसे भी नही सुलती ।' 'ठीक । अव तुम क्या चाहते हो ।' ' में श्रापका सेवक बनना चाहता है ।' ' स्वीकार किया ।' 'दहगे ।' 'जो' । स्वीति सुनकर 'देव नाच उठा । प्रसनता के मारे फुदक उठा । श्रीर वार वार जय बोलने लगा। वह मारे सुशी के श्रभिवादन करके वापस लोटने लगा। तभी गगन को हो करतोय 'ठहरो' को सुनकर वापिस
SR No.010160
Book TitleBhagavana Adinath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasant Jain Shastri
PublisherAnil Pocket Books
Publication Year
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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