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________________ (१२) शोंका न बढ़ना, ९ नेत्रोकी पलकें न झपकना, १० और शरीरकी छाया न पड़ना । जब अरहंतभगवानको केवलज्ञान हो जाता है, तो उस समयसे जहाँ भगवान होते हैं, उस स्थानसे चारो तरफ सौ सौ योजन तक मुकाल रहता है । पृथिवीसे ऊपर उनका गमन होता है, देखनेवालोको चारो तरफ उनका मुँह दिखलाई देता है। उनपर कोई उपसर्ग नहीं कर सकता और उनके शरीरसे किसी भी जीवकी हिंसा नहीं होती । न आहार लेते हैं, न उनकी पलके झपकती हैं, न उनके बाल और नाखून बढ़ते हैं, और न शरीरकी परछाँई पड़ती है, वे समस्त विद्या और शास्त्रोके ज्ञाता हो जाते हैं । ये दश अतिशय केवलज्ञान होनेके समय प्रकट होते हैं । देवकृत चौदह अतिशय । देवरचित हैं चारदश, अर्द्धमागधी भाप । आपसमाही मित्रता, निर्मलदिर्श आकाश ॥ होत फूल फल ऋतु सगै, पृथिवी काचसमान । चरण कमल तल कमल है, नर्भते जय जय वान ॥ मन्द सुगंध वयारि पुनि, गंधोदककी वृष्टि । भूमिविषे कण्टक नहीं, हर्षमयी सब सृष्टि । धर्मचक्र आगे रहे, पुनि वसु मंगल सार । अतिशय श्रीअरहंतके, ये चौंतीस प्रकार ॥ १ भगवानकी अर्द्धमागधी भापाका होना, २ समस्त १ भाषा । २ दिशा । ३ काच, दर्पण । ४ आकाशसे । ५ वाणी । ६ हवा। ७ काँटे, कङ्कर । ८ आठ मंगलद्रव्य ।
SR No.010158
Book TitleBalbodh Jain Dharm Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayachand Goyaliya
PublisherDaya Sudhakar Karyalaya
Publication Year
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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