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________________ ( १३ ) जीवोंमे परस्पर मित्रताका होना, ३ दिशाओंका निर्मल होना, ४ आकाशका निर्मल होना, ५ सब ऋतुके फल फूल धान्यादिकका एक ही समय फलना, ६ एक योजन तककी पृथि. वीका दर्पणकी तरह निर्मल होना, ८ चलते समय भगवानके चरणकमलोके तळे सुवर्ण-कमलोंका होना, ८ आकाशमे जय जय ध्वनिका होना, ९ मन्द सुगंधित पवनका चलना, १० सुगंधमय जलकी वृष्टि होना, ११ पवनकुमार देवोंके द्वारा । भूमिका कण्टक रहित होना, १२ समस्त जीवोका आनन्दमय | होना, १३ भगवानके आगे धर्मचक्रका चलना, १४ छत्र चमर । ध्वजा घंटा आदि आठ मंगल द्रव्योंका साथ रहना। इस प्रकार सब मिलकर ३४ अतिशय अरहंत भगवानके होते हैं । आठ प्रातिहार्य। तरु अशोकके निकटमें सिंहासन छबिदार । तीन छत्र सिरपर लसैं, भामण्डल पिछवार॥ दिव्यध्वनि मुखः, खिर, पुष्पवृष्टि सुर होय ॥ ढोरें चौसठि चमर जखें, बाजै दुन्दुभि जोय ।। अर्थात-१ अशोक वृक्षका होना, २ रत्नमय सिंहासन, ३ भगवानके सिरपर तीन छत्रका होना, ४ भगवानके पीठके पछि भामण्डलका होना, ५ भगवानके मुखसे निरक्षरी (विनाअक्षरकी ) दिव्यध्वनिका होना, ६ देवोंके द्वारा फूलोकी १ पीछे । २ भगवानकी अक्षर रहित सबके समझमें आनेवाली सुन्दर अनुपम वाणी। ३ देवकृत । ४ यक्ष जातिके व्यतर देव। ।
SR No.010158
Book TitleBalbodh Jain Dharm Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayachand Goyaliya
PublisherDaya Sudhakar Karyalaya
Publication Year
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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