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________________ ४६२ आत्मतत्व-विचार "मेरी यह हालत देखकर कई कुशल वैद्य बुलाये गये। उन्होंने मेरे रोग का निदान किया । चिकित्सको ने चारो प्रकार की चिकित्साओ का प्रयोग किया और अनेक प्रकार की कीमती दवाओं का आश्रय लिया, फिर भी वे मुझे दुःख से छुड़ा न सके । हे राजन् ! यही मेरी अनाथता है। "दवाओं के निष्फल होने पर, मेरे पिता ने दूसरे भी अन्य उपचार कराये और उनमे बड़ा द्रव्य खर्च किया। उन्होंने यह भी घोषणा की कि, जो कोई मत्र-तन्त्रवादी मेरे पुत्र को अच्छा कर देगा उसे अपनी आधी सम्पत्ति दे देंगे। फिर भी वे मुझे दुःख से न बचा सके । हे राजन् ! यही. मेरी अनाथता है ! ___ "मेरी माता मेरे प्रति बड़ा वात्सल्य दिखलाती थी। वह मुझे आँख की पुतली की तरह मानती थी। वह मुझे उस हालत में देखकर विह्वल हो जाती थी और मुझे दुःख से मुक्त देखने के लिए अनेक प्रकार की प्रयास करती रहीं, फिर भी, वह मुझे दुःख से छुड़ा न सकी । हे राजन् । यही मेरी अनाथता है । ___"मेरे सगे भाई अपना काम-धन्धा छोडकर मेरे पास बैठते, मेरे हाथपैर दबाते, और मुझे दुःखी देखकर दुःखी होते, फिर भी वे मुझे उस दुःख मे छुड़ा न सके । हे राजन् । यही मेरी अनाथता है । "बहिनें, पत्नी, मित्र आदि भी मेरी वह हालत देखकर बड़े दुःखी होते और विविध उपाय करने के लिए तत्पर रहते, पर उनमे से कोई मुझे उस दु.ख से छुड़ा न सका । हे राजन् ! यही मेरी अनाथता है ! "इस तरह जब मैने चारों तरफ से असहायता अनुभव की, तत्र मुझे लगा कि, जिन्हें मै आन तक दुःख निवारण के साधन मानता था, वे सचमुच इसके लिए समर्थ नहीं थे | धन, माल, ऋद्धि, सिद्वि, कुटुम्बकवीला, स्वजन-महाजन आदि कोई भी मेरी मदद नहीं कर सका, मुझे
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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