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________________ गुणस्थान ४६३ दुःख मुक्त न कर सका । इसलिए, मुझे प्रतीति होने लगी कि दुःखनिवारण का कारण और कुछ होना चाहिए। उसी समय यह श्लोक याद आया : कृतकर्मक्षयो नास्ति, कल्पकोटिशतैरपि । अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् ॥ -करोड़ो युग चले जायें फिर भी किये हुए कर्मों का नाश नहीं होता । अपने किये हुए शुभाशुभ कर्म अवश्य भोगने पड़ते हैं। "इसलिए मुझे लगा कि, मेरा यह दुःख भी मेरे पूर्व कर्मों का फल होना चाहिए । और, उस वक्त मुझे एक श्रमण की कही हुई नीचे की गाथा का स्फुरण हुआ विगिंच कम्मुणो हेरें, जसं संचिणु खंतिए । पावं सरीरं हिच्चा, उड़ढं पक्कमए दिसं॥ -कर्म के हेतु को छोड़, क्षमा की कीर्ति को प्राप्त कर । ऐसा करने से तू पार्थिक शरीर छोड़कर ऊँची दिशामें जायेगा । "और, मेरा मन कर्म के हेतु को खोजने लगा। उस खोज में मैंने जान लिया कि हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन, परिग्रह आदि प्रवृत्तियाँ पाप के पथ पर ले जाती हैं और वे ही कर्म की कारण हैं, इसलिए कर्मबन्धन से छूटना हो तो मुझे इन पापप्रवृत्तियों का त्याग करके शाति, शौच आदि गुणोको विकसाना चाहिए । "परन्तु, यह तभी बन सकता था कि, जब मेरी वेदना कुछ कम होती। इसलिए, उसी समय मैंने मन में सकल्प किया कि अगर मै इस रोग से मुक्त हो जाऊँगा तो क्षान्त, दान्त और निरारभी होऊँगा, क्षमा आदि दशगुणयुक्त सयमधर्म स्वीकार करके साधु बनूंगा। "और, हे राजन् । ऐशा सकल्प करके जब मैंने सोने का प्रयत्न किया तो मुझे तुरत निद्रा आ गयी। फिर, ज्यों-ज्यों रात बीतती गयी; त्यों-त्यो
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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