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________________ गुणस्थान ४६१ आपके वचन कभी असत्य नहीं हो सकते । पर मुझे यह नहीं लगता कि, मैं अनाथ हूँ और आपका नाथ नहीं हो सकता।" मुनिवर ने कहा-“हे राजन् ! तूने अनाथ और सनाथ के भाव को __ नहीं समझा। उसे समझने के लिए तुझे मेरा पहले का जीवन सुनना पड़ेगा। वह मैं तुझे सक्षेप में सुनाता हूँ।" मुनिवर का इशारा पाकर श्रेणिक नीचे बैठ गये और उत्सुकतापूर्वक सुनने लगे। मुनिवर ने कहा--''हे राजन् ! छठे तीर्थंकर श्री पद्मप्रभ स्वामी के पवित्र चरणों से पवित्र हुई और धनधान्य से अत्यन्त समृद्ध कौगाबी नगरी में मेरे पिता रहते थे। वे धनपतियो में अग्रगण्य थे। मैं अपने पिता का बहुत ही लाड़ला पुत्र था, इसलिए मुझे बडे प्यार से पाला गया और मुझे विविध कलाओ का शिक्षण देने के लिए बड़े-बड़े कलाविद् रखे गये थे। योग्य उम्र पर एक कुलवती सुन्दर ललना के साथ मेरा विवाह हुआ और हमारा ससार सुखपूर्वक चलने लगा। व्यवहार का कार्य बहुत करके पिताश्री संभालते थे और व्यापार का कार्य गुमाश्ते सँभालते, इसलिए मेरे सर किसी तरह का भार नहीं था। मैं मित्रों से घिरा रहता और इच्छानुसार घूमता-फिरता । दुःख, मुसीबत या तकलीफ क्या चीज होती है, इसका मुझे कुछ भी ज्ञान नहीं था। "हे राजन् ! इतने में मेरी एक आँख दुखने लगी और सूज गयी। "और, उसमे निस्सीम पीड़ा होने लगी। उस वेदना के कारण मुझे जरा भी नींद नहीं आती थी। मैं उस वेदना के कारण मछली की तरह तड़-पड़ाता था। "उस वेदना से मुझे दाहज्वर हो गया। मस्तक फटने लगा, छाती दुखने लगी और कमर के टुकड़े होने लगे। उस दुःख का मैं वर्णन नहीं कर सकता।
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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