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________________ ४२४ आत्मतत्व-विचार हँसते-हँसते बोली-"अधो के तो अधे ही होते हैं।" कौरवों के पिता वृतराष्ट्र अधे थे। इससे कौरवों को घोर अपमान लगा और उसका बदला लेने के लिए उन्होंने अनेक तदवीरें की। आखिर, महाभारत हुआ और उसमै लाखो का सहार हुआ। - पौद्गलिक पदार्थों के प्रति रति--प्रीति--होने का कैसा भयकर परिणाम होता है, यह रूपसेन की कथा में बताया जा चुका है। अप्रिय पदार्थों के प्रति अरति-अप्रीति ! द्वेष - करनेवाले की हालत भी वैसी ही बुरी होती है। भय से मन के परिणाम चचल हो जाते है और उससे की हुई प्रतिज्ञा का निर्वाह नहीं हो सकता। आज के मनोविज्ञान ने तो भय को मनुष्य की समस्त दुर्बलताओं का मूल बतलाया है। भय को जीते बिना न तो अभिभव कायोत्सर्ग हो सकता है और न विशुद्ध रूप में चारित्र का पालन हो सकता है। समस्त भयों को जीतनेवाला ही जिन हो सकता है। इष्ट वियोग और अनिष्ट-सयोग होने पर लोग शोक करने लगते है और इस प्रकार गहरे आर्तव्यानमें उतर जाते हैं। उस समय उन्हें पौद्गलिक पदार्थों की निस्सारता का चिन्तन करना चाहिए और यह मानना चाहिए कि, मेरी कुछ हानि नहीं हुई। मिथिला-जैसी नगरी जल उठी । आकाश में उठती हुई उसकी लपटो को दिखलाते हुए एक वृद्ध विप्र बोला-“हे नमिराज । यह मिथिला जल रही है, इसे बुझाकर सयम-मार्ग पर संचरण करें ।" नमिराज ससार को असार जानकर सयम ग्रहण करने के लिए तत्पर हुए हैं। वे कहते है - "हे विप्र । मिथिला के जलने से मेरा कुछ नहीं जलता । मैं तो अपनी आत्मा की ही आग बुझाना चाहता हूँ !' कैसी सुन्दर समझ है | कैसा धैर्य है।
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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