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________________ ४२५ कर्मवन्ध और उसके कारणों पर विचार चाहे जितना शोक करने पर भी मृत स्वजन जीवित नहीं किया जा सकता। तो फिर शोक करके व्यर्थ कर्मबन्धन क्यो ? समझदार को चाहिए कि, ऐसे समय गाति धारण करे और मन को धर्मध्यान में लगाये । मृत्यु-सम्बन्धी रीति-रिवाजो में पहले की अपेक्षा सुधार हुए है । पर, अभी और भी विशेष सुधार आवश्यक है और आध्यान में कमी करने की ओर ध्यान देने की आवश्यकता है।। दुगछा ( जुगुप्सा ) अप्रीति या तिरस्कार में से पैदा होती है, इसलिए उसका भी त्याग करना चाहिए | जो किसी लूले, लंगड़े, काने, कुबड़े, गन्दे को देखकर उसकी दुगछा करते हैं, वे ऐसा करके कपाय और नोकषाय का सेवन करनेवाले चारित्रमोहनीय कर्म का बन्ध करते हैं। साधु-साध्वी के मलिन वस्त्र-गात्र देखकर दुगछा करनेवाला चारित्रमोहनीय का विशेष बन्ध करता है। अन्तराय-कर्मवन्ध के विशेष कारण किसी के सुख में अन्तराय डालने से अन्तराय कर्म का बन्ध होता है । किसी को भूखा प्यासा रखने से हमे भी भूखा-प्यासा रहना पड़ता है । किसी की धन-प्राप्ति में बाधा डालने से खुद की धन-प्राप्ति में अन्तराय पैदा होता है। जो किसी के घर में फूट डालते हैं, बच्चों का माँ-बाप से वियोग कराते हैं, अंडे तोड़ते हैं, पशु-पक्षियों के निवास स्थान या घोसले -तोड़ते हैं, वे सत्र अन्तराय-कर्म का बन्ध करते हैं। जो जिन-पूजा, गुरु-सेवा या धर्माराधन में अन्तराय डालते हैं और हिंसा, झूठ, चोरी आदि नीच काम करते हैं, वे विशेष अन्तराय-कर्म बाँधते हैं और उसके अत्यन्त कड़वे फल भोगते हैं। घातिया-कर्मों का विचार यहाँ पूर्ण हुआ। अब अघातिया कर्मों का विवेचन करते हैं।
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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