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________________ कर्मवन्ध और उसके कारणों पर विचार ४२३ दस लाख काकणी दे दी। फिर, बहुत-सा द्रव्य कमाकर वह घर आया और श्रीमतो में अग्रणी हुआ । राजा-प्रजा दोनों ने उसका बहुमान किया । फिर उसने जिनमदिर बनवाये। उनकी और दूसरे मंदिरों की वह सार-संभाल करने लगा और देव-द्रव्य की वृद्धि के उपाय करने लगा। इस प्रकार दीर्घकाल तक सत्कार्य करते रहने से उसने जिन-नामकर्म बाँधा । फिर, अवसर पर गीतार्थ गुरु से दीक्षा ली और जिनभक्तिरूप प्रथम स्थानक की आराधना करके उस कर्म को निकाचित किया । अनुक्रम से कालधर्म पाकर वह सर्वार्थसिद्धि-विमान में वह देव हुआ। वहाँ से च्यव कर वह महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होकर अरिहत की ऋद्धि भोग कर मोक्ष जायेगा। देव-द्रव्य खा जानेवाले की हालत कैसी हो जाती है, इस कथा से समझा जा सकता है। यहाँ देव-द्रव्य के साथ उपलक्षणसे ज्ञान द्रव्य, गुरुद्रव्य आदि भी समझ लेने चाहिए। जिन, मुनि, चैत्य और सघादि की प्रत्यनीकता--आशातना-करने से भी दर्शनमोहनीय कर्म का बन्ध होता है, इसलिए उनसे भी बचना आवश्यक है। जो आत्मा क्रोध, मान, माया और लोभ के वशीभूत होती है और हास्य, आदि नौ नोकपायों मे लीन होती है, वह चारित्रमोहनीय कर्म बाँधती है। कषायो की दुष्टता का वर्णन तो अभी कर गये । नोकषाय कषायों को उत्तेजन देनेवाली हैं, इसलिए वे भी उतनी ही दुष्ट हैं । चोरी को उत्तेजन देनेवाला चोर कहलाता है। और, दुष्ट को उत्तेजन देनेवाला • दुष्ट कहलाता है। __ काम से क्रोध पैदा होता है, उससे आत्मा अपना मान भूलकर नाना न करने योग्य काम कर बैठती है। हास्यादि का भी परिणाम ऐसा ही भयकर होता है। पाडवों ने कॉच का महल बनाया । कौरव देखने आये। उन्होंने पानी जानकर कपड़े ऊपर किये और द्रौपदी हँस पड़ी। वह
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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