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________________ इक्कीसवाँ व्याख्यान आठ कर्म महानुभावो! कर्म की मूल प्रकृति आठ है । उन्हे ही 'आठ कर्म' कहा जाता है। यह मैं पिछले व्याख्यान में स्पष्ट कर चुका हूँ। अब यह बतलाना चाहते है कि उन आठ कर्मों का स्वभाव कैसा है और वे क्या-क्या काम करते हैं। कितने कहते हैं कि कर्म तो जड़ है। उसका स्वभाव कुछ कैसे हो सकता है ? पर, उन लोगो ने स्वभाव का अर्थ नहीं समझा। स्वभाव का तात्पर्य है अपना भाव, अपना गुण । वह जड़ पदार्थों का भी होता है। जैसे शक्कर का स्वभाव है-मिठास, किनाइन का स्वभाव कडवाहट है और मिरचे का स्वभाव तिताई है। दो चकमक की रगड़ से आग निकलती है । अतः सिद्ध है, जिसका जैसा स्वभाव होता है, वह वैसा ही कर्म करता है। कुछ लोग कहते हैं,-"कर्म का इस प्रकार भेदानुभेद न करे तो क्या न चले ? अपने को तो कर्म का नाश करना है, अतः यदि उसी का उपदेश करें तो ठीक " परन्तु केवल इतना कहने से कि आदमी को रोग हुआ है, उस व्यक्ति का रोग दूर नहीं किया जा सकता। वह रोग किस प्रकार का है, उसके होने का कारण क्या है, इन सब को बताया जाये तो कुछ परिणाम निकले । और, उसे दूर करने का क्या उपाय है, आदि विषयों में जानकारी प्राप्त हो तो रोग का नाश सम्भव है । रोग का पूरा-पूरा स्वरूप जाने बिना रोग का नाश नहीं किया जा सकता है,
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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