SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 374
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३०८ आत्मतत्व विचार उसी प्रकार कर्म का स्वरूप पूरा-पूरा जाने बिना कर्म का नाम नहीं हो हो सकता | भिन्न-भिन्न स्वरूपो का फल क्या मिलता है, इसे जानने के. लिए कर्म का भेद जानना आवश्यक है। आठ कर्मों का यह क्रम क्यों ? रवि के बाद सोम, सोम के बाद मगल, मगल के बाट बुध इस रीति से दिनो का एक क्रम होने के पीछे एक आधारपूर्ण हेतु है अथवा कार्तिक के बाद मार्गशीर्ष, मार्गशीर्ष के बाद पौष और पौष के पीछे माध, इस प्रकार के क्रम के पीछे एक हेतु है, उसी प्रकार ज्ञानावरणीय के बाद दर्शनावरणीय, दर्शनावरणीय के बाद वेदनीय, वेदनीय के बाद मोहनीय, मोहनीय के बाद आयुष्य, आयुष्य के पीछे नाम, नाम के पीछे गोत्र, गोत्र के पीछे अन्तराय ! इस प्रकार आठ कर्मों के क्रम मे भी आधारपूर्ण हेतु है ।* ___ आत्मा के सब गुणो मे ज्ञान की मुख्यता है, इसलिए उसका रोध, करनेवाले कर्म को पहले रखा गया है। जान के बाद का स्थान दर्शन को. प्राप्त होता है, इसलिए ज्ञानावरणीय के बाद का स्थान दर्शनावरणीय को दिया गया है। ये दोनों कर्म अपना फल दिखलाते समय सुख-दुःख-रूप वेदनीय विपाक के हेतु है, इसलिए दर्शनावरणीय के बाद वेदनीय कर्म रखा गया है । वेटनीय-कर्म के उदय होने पर जीव को कषायादि अवश्य नाणस्सावरणिज्ज, दंसणावरणे तहा । वेयणिएजं तहा मोहं, पाठकम्यं तहेव य ॥ नामकम्म च गोयं च, अंतरायं तहेव य । एवमेयाई कम्माई, अट्ठव उ समासयो । -श्री उत्तराध्ययन सूत्र, अ० ३३ । मी प्रकार का क्रम कर्मग्रन्थों में भी दिया है।
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy