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________________ कर्म की पहचान २५१ महाराज ने उसके आधार पर पाँच नये कर्म-ग्रन्थो की रचना की और श्रीचन्द्र महत्तराचार्य ने 'सप्ततिका' नामक छटा नवीन कर्मग्रन्थ बनाया | पॉच नवीन कर्मग्रन्थो पर गुजराती मे श्री जीव विजयजी महाराज तथा श्री यगःसोम गणि द्वारा निर्मित टिप्पणि मौजूद हैं। कर्मों पर अन्य माहित्य भी बहुत रचा गया है । उसमे श्री चन्दर्पि महत्तर कृत 'पचसग्रह नामक ग्रन्थ विशेष उल्लेखनीय है । लेकिन, आप लोगो में इस कर्म - साहित्य का अध्ययन करनेवाले कितने होंगे ? पहले श्रवको में भी कर्मग्रन्थों के अच्छे जानकार थे, लेकिन आज तो उँगलियों पर गिनने लायक भी नहीं रहे। आप इस विषय को जानने की उत्सुकता रखते हैं, यह देखकर बडा आनन्द होता है । अब हम कुछ दिनों तक इसी विषय का विवेचन करेगे । और, उपर्युक्त साहित्य कम नवनीत आपके सामने रखेंगे । उसका उपयोग करना आपके हाथ है । आप एकाग्र मन से सुनेंगे, तो आपको कर्म विषयक अच्छा ज्ञान प्राप्त हो जायेगा और वह आपके आत्म-विकास में अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होगा । यह जान लेना अगर एक अर्थ 'कर्म' शब्द यहाँ किस अर्थ में प्रयोग हुआ है, चाहिए, क्योकि एक ही शब्द के अनेक अर्थ होते हैं। की जगह दूसरा अर्थ ले लिया जाये तो अनर्थ हो जाता है । 'कर्म' शब्द कर्तव्य, फर्ज, अनुष्ठान, धधा, उद्देश या हेतु के लिये प्रयोग होता है, लेकिन यहाँ वह अर्थ प्रस्तुत नहीं है । यहाँ तो 'पावाणं कम्माणं निग्धायणट्टाए' 'छिन्नइ सुहं कस्मं' 'कम्मघण मुक्कं' 'कम्मट्ठविणासण' आदि पदो में जिस अर्थ में प्रयुक्त हुआ है वही प्रस्तुत है । उसी का हम स्पष्टीकरण करना चाहते है । यह लोक पड्द्रव्यमय है और अनादि काल से है । वे ६ द्रव्य है—— १ जीवास्तिकाय, २ पुद्गलास्तिकाय, ३ धर्मास्तिकाय, ४ अधर्मास्तिकाय, ५ आकाशास्तिकाय और ६ काल ।
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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