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________________ २५० आत्मतत्व-विचार ___ कर्म भी ऐसे ही दुष्ट है । वे अन्त तक अपनी दुष्टता नहीं छोड़ते। जब तक वे आत्मा के साथ रहेगे, दुःख देते रहेगे, और तब तक हमारी हालत दावानल में घिरे हुए जानवरो की सी बनी रहेगी। ___कर्मों के इस अनिष्टकारी सम्बन्ध का स्थायी अन्त लाना हो तो हमें उनका स्वरूप अच्छी तरह समझ लेना चाहिए । आत्मा का विकास कर्मों के विनाश के साथ जुड़ा हुआ है। इसलिए हमें दोनो की जानकारी चाहिए। तन्दुरुस्ती चाहने वाले को बीमारी की जानकारी होनी चाहिए। किसी किले को तोड़ना हो तो उसकी भी जानकारी चाहिए। आत्मा का स्वरूप तो हमने जान लिया, अब हम कर्मों का भी ज्ञान प्राप्त कर लेना चाहिए। इसे लक्ष्य मे रखकर शास्त्रकार भगवत ने जितना वर्णन आत्म-स्वरूप का किया है, उतना ही कर्म-स्वरूप का भी किया है । जिनागमो मे बहुतसी जगहो पर कर्मों का वर्णन आता है। चौदह पूर्वो मे ** कर्मप्रवाट ( कम्मप्पवाय ) नामक एक विशेष पूर्व भी था। दूसरे आग्रायनीय पूर्व (अग्गेनीय पूज्य ) में भी कर्म-संबधी बहुत विवेचन था। उसका सार ग्रहण करके श्री शिवशर्म सूरि ने प्राकृतगाथाबद्ध 'कर्म प्रकृति' नामक एक महत्त्वपूर्ण प्रकरण की रचना की है। श्री मलयगिरि महाराज ने तथा श्रीमयशोविजयजी उपाध्याय ने उस पर संस्कृत भाषा मे सुन्दर टीका का निर्माण किया है। कर्मों का मौलिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्राचीन काल मे ६ ग्रन्थ थे। उन्हें '६ कर्म ग्रन्थ' कहते है। श्री देवेन्द्र सार * बारहवें अग दृष्टिवाद का एक भाग 'चौदह पूर्व' कहलाता था। उसके पूर्व के नाम इस प्रकार हैं -( १ ) उत्पाठ पूर्व, (२) श्राग्रायनीय पूर्व, (३) वा प्रवाद पूर्व, (४) अस्ति नारित प्रवाद पूर्व, (५) शान प्रवाढ पूर्व, (६) संत प्रवाद पूर्व, (७) श्रात्मप्रवाद पूर्व, (८) कर्म प्रवाद पूर्व, ( 8 ) प्रत्याख्यान प्रवाट पूर्व, (१०) विद्या प्रवाद पूर्व, (११) कल्याण प्रवाद पूर्व, (१२) प्राण बाद पूर्व, (१३) क्रिया विशाल पूर्व, ओर ( १४ ) लोक विन्दुसार पूर्व ।
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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