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________________ २५२ आत्मतत्व-विचार __इन ६ द्रव्यो में आकाश-क्षेत्र है और शेष क्षेत्री है, अर्थात् उसके अन्दर निवास करते है। इनमे पहला चैतन्ययुक्त है और गेप पॉच जड हैं। कुछ लोग पुद्गल के सयोजन से भी चैतन्य की उत्पत्ति मानते है और आत्मतत्त्व की स्वतंत्रता उड़ा देते है, परन्तु पुद्गल मे चैतन्य का एक अग भी नहीं है। चाहे जितने पुद्गलो को चाहे जिस तरह से इकट्ठा किया जाये, उनसे चैतन्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती । इन ६ द्रव्यो में पुद्गल रूपी है । गेप सब अरूपी है। रूपी के गुण रूपी है, अरूपी के अरूपी। फिर भी, अरूपी पदार्थ अपने कार्यों द्वारा जाने जा सकते है, जैसे काल दिखता नहीं है, पर अपने कार्य से जाना जाता है, आत्मा दिखता नहीं है, पर अपने कार्य से जाना जाता है । इसी तरह अन्य द्रव्य अपने कार्यों से जाने जाते है। जितना माप लोकाकाश का है, उतना ही धर्मास्तिकाय का है। नितने प्रदेश लोकाकाश के है, उतने ही प्रदेश धर्मास्तिकाय के है। आकाश के एक प्रदेश मे धर्मास्तिकाय का एक प्रदेश होता है। अधर्मास्तिकाय के विषय मे भी ऐसा ही समझना चाहिए। ____ आधुनिक विज्ञान मे भौतिक विज्ञान (फिनिक्स ) की मुख्यता है । परन्तु, इस विषय मे जैन-दर्शन ने भी बहुत-कुछ दिया है। जैन-दर्शन में पुद्गलो के स्थूल से स्थूल स्वरूप से लेकर सूक्ष्मातिसूक्ष्म स्वरूप तक का विवेचन हुआ है । जबकि भारत के अन्य दर्शन, शब्द को आकाश का गुण मानते थे तब जैन-दर्शन ने उसे पुद्गल का धर्म माना था । और, यह चतलाया था कि वह क्षण मात्र में लोक के एक सिरे से दूसरे सिरे तक पहुँच सकता है, जो कि आज 'रेडियो' के आविष्कार से सिद्ध हो गया है। इस प्रकार जैन-दर्शन अत्यन्त सूक्ष्म और सत्य है और दिन-प्रति-दिन विद्वान् उसकी ओर आकृष्ट होते जा रहे हैं।
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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