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________________ श्रात्मा की अखण्डता ७५ इतिहास आदि का खजाना भरा हुआ है । इटालियन विद्वान् डॉक्टर टैसीटोरी ने ठीक ही कहा है- "आधुनिक विज्ञान ज्यो- ज्यो आगे बढता जाता है, त्यो-त्यो जैन-सिद्धान्तों को ही साबित करता जाता है ।" लोकाकाश एक आत्मा का प्रदेश लोकाकान के बराबर है, यह ऊपर कहा गया है, इसलिए यहाँ लोकाकाग के सम्बन्ध में भी स्पष्ट कर ले । आकाश यानी अवकाश (स्पेस) ! इस बारे में किसी का भी मतभेद नहीं है । आज के विज्ञान ने भी उसकी अनन्तता मानी है । इम अनन्त आकाश के जितने भाग में लोक व्यवस्थित हुआ है, उसे 'लोकाकाश' कहा जाता है । और,, शेप आकाश को 'अलोकाकाग' कहा जाता है, अर्थात् कि वहाँ आकाश के सिवाय और कोई वस्तु नहीं है । लोक का सामान्य परिचय : 'लोक' किसे कहा जाये ? अथवा उसमें क्या होता है ? इसका उत्तर श्री उत्तराध्ययन सूत्र के अट्ठाईसवें अध्ययन में इस प्रकार दिया गया हैं धम्मो ग्रहम्मो श्रागास, कालो पुग्गल जंतवो । एस लोगोन्ति पण्णतो, जिणेहिं वरदसिहि ॥ - १ धर्म, २ अधर्म, आकाश, ४ काल, ५ पुद्गल और ६. आत्मा इन ६ द्रव्यो के समूह को श्रेष्ठ दर्शन वाले सर्वज- सर्वदर्शी जिनेश्वरभगवतो ने लोक कहा है । तात्पर्य यह है कि हम जिसे लोक, विव, ब्रह्माण्ड, जगत् या दुनिया ( यूनिवर्स ) कहते है, उसमें मूल द्रव्य ६ है ( १ ) धर्मास्तिकाय, ( २ ) अधर्मास्तिकाय, ( ३ ) आकाशास्तिकाय, ( ४ ) काल, (५) पुद्गलास्तिकाय और ( ६ ) जीवास्तिकाय । पाँच शब्दो को अस्तिकाय शब्द लगाने का कारण यह है कि, उनमें 'अस्ति' अर्थात् प्रदेशों का, 'काय' अर्थात् समूह
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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