SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 114
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७६ आत्मतत्व- विचार होता है । काल को अस्तिकाय न कहने का कारण यह है कि, भूतकाल तो नष्ट हो चुका है और भविष्य काल अविद्यमान है, और वर्तमानकाल तो समय मात्र है, इसलिए उसमें प्रदेशो का समूह सभव नहीं हो सकता । आत्मा का स्वरूप अच्छी तरह समझने के लिए, द्रव्यों का यह सामान्य परिचय प्राप्त कर लेना आवश्यक है । इसलिए, अब हम तत्सम्बन्धी कुछ विवेचन करेगे | (१) धर्मास्तिकाय अर्थात् गति सहायक द्रव्य ! वह सकल लोकाकाश मेव्यात है और पदार्थों को गति करने में सहायता करता है । जैसे मछली में तैरने की शक्ति होने पर भी वह जल बिना नहीं तैर सकती, उसी तरह पुद्गल और आत्मा गति करने में समर्थ होते हुए भी धर्मास्तिकाय की सहायता बिना गति नहीं कर सकते । (२) अधर्मास्तिकाय अर्थात् स्थिति सहायक द्रव्य । वह भी सकल लोकाकाश में व्याप्त है और पदार्थों को स्थित होने में सहायता करता है । जैसे यात्री में स्थिर होने की शक्ति होने पर भी, वह वृक्ष की छाया बिना स्थिर नहीं हो सकता, वैसे ही पुद्गल और आत्मा स्थिर होने में समर्थ होते हुए भी अधर्मास्तिकाय की सहायता बिना स्थिर नहीं हो सकते। पहले बहुत से दार्शनिक इस धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय के निरूपण के विषय में जैन दर्शन का मजाक उडाते थे । पर आधुनिक 'विज्ञान ने 'ईथर' का आविष्कार किया और व्वनि आदि की गति में उनकी उपयोगिता स्वीकार की तो उनके मुॅह उतर गये । तात्पर्य यह कि, गति -सहायक और स्थिति - सहायक द्रव्यो का ख्याल सबसे पहले जैनदर्शन ने दिया है और वह सच्चा है । (३) आकाशास्तिकाय के बारे में पहले कह चुके है । (४) काल | किसी भी वस्तु की वर्तना का विचार इस द्रव्य के कारण
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy