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________________ आत्मतत्व-विचार से खडित नहीं होते, उसी तरह एक शरीर मे अनन्त आत्माऍ साथ रहती हुई भी परस्पर टकराती नहीं, परस्पर संघर्ष नहीं करती, एक दूसरे से खडित नहीं होती । कोई यह कहे कि, ये आत्मा पानी में नमक की तरह घुल जाती हैं या एक दूसरे में लय हो जाती होगी, इसीलिए एक दूसरे से टकराती न होगी या सर्प न करती होगी, तो यह कहना उचित नहीं है । दीपक के विविध प्रकाश साथ रहते हुए भी, जैसे अपना व्यक्तित्व बनाये रखते हैं, उसी तरह अनन्त आत्मा साथ रहते हुए भी अपना व्यक्तित्व कायम रखती हैं। ७४ 'दीपक का प्रकाश किस प्रकार अपना व्यक्तित्व बनाये रखता है ?' यह पूछा जाये तो कहते हैं, कि इन दोपको में से किसी भी दीपक को बाहर ले जाया जाये, तो उसका प्रकाश भी उसके साथ ही बाहर निकल जायेगा । तात्पर्य यह कि, अनेक टीपको के साथ रहते हुए भी वह अपना मूल प्रकाश खोता नहीं है, अपना व्यक्तित्व छोड़ता नहीं है । देव अपनी शक्ति से अनेक जाति के रूप बना सकते है, यह सब जानते हैं। मानो कि, उन्होंने इस लोक में एक रूप बनाया, तो वे अपनी आत्मा का एक खड या टुकड़ा उसमें नहीं रखते, बल्कि अपने आत्मप्रदेशो को वहाँ तक लम्बायमान करते हैं । इन प्रलम्बित आत्मप्रदेशो को किसी की टक्कर नहीं लगती, या अग्नि, वायु, जल आदि का उपघात नहीं होता, कारण कि स्वभाव से वह अखड और अरूपी है । जिस जमाने में सूक्ष्मदर्शक यंत्र नहीं थे, दर्शक-यत्र नहीं थे, उस जमाने में यह सब कहा गया है, सो कैसे कहा गया होगा ? सर्वज-भगवतो ने अपने ज्ञान से जो देखा सो हमें कहा हैं और वह परम सत्य है । आजके विज्ञान ने इस विषय में कुछ चचुपात किया है; घर वह जैन-शासन द्वारा दिये हुए ज्ञान को नहीं पहुँच सका । जैन-शासन में भव्य तत्त्वज्ञान के उपरान्त गणित, खगोल, भूगोल,
SR No.010156
Book TitleAtmatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmansuri
PublisherAtma Kamal Labdhisuri Gyanmandir
Publication Year1963
Total Pages819
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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